कागज की नाव
बारिश में पानी भरे गड्ढों में
कागज की नाव चलाने को
मन बहुत करता
हम बड़े जरूर हुए
ख्यालात तो वो है हुजूर
रिश्तों के पेचीदा गणित में
उलझ जाकर पहचान भूल जाते
घर आंगन जो बुहारे गए
धूल भरी आंधी सूखे पत्तो संग
कागज के टुकड़ों को बिखेर जाती पागल हवा
सूने आंगन में
बुहार कर सोचता हूं
कागज की नाव बनालू
पानी से भरे गढढो
को ढूंढता हूं
पानी तो बोतलों में बंद
बरसात की राह ताकते
बूढ़ा हो चुका
खेतों में हल नहीं चले
शायद नाव भी अनशन पर जा बैठी
जल का महत्व
केवट और किसान ज्यादा जानते
हम तो छोटे थे
तब कागज की नाव चलाते
और लोग बाग कागजों पर ही
नाव चला देते है
ख़ैर, जल बचाएंगे तभी
सब की नाव सही तरीके से चलेगी
आने वाली पीढ़ी के बच्चे
नाव बनाना और चलाना सीख पाएंगे
— संजय वर्मा “दृष्टि”