औरत और उम्मीद
उम्मीदों के सुलगते चूल्हे पर जाने कितने युग बीत गए
साँचा बनाकर औरत का क्यों प्रभु तुम भी भूल गए ।
लो फिर से आया सुहाना सावन पतझड़ में फूल भी टूट गए ,
अश्रु बनकर छलक गए वो पहरे फिर से पनप गए ।
उम्मीदों के गहरे सागर में यूं कश्ती डगमग चलती है
पतवार के हों जैसे दोनों छोर जो आपस में उलझ गए ।
अरमानों की तपती ज्वाला में किसकी हस्ती चलती है ,
तिनका तिनका जोड़ा हौसला पत्ते सारे फिसल गए ।
महल दुमहले सोना चाँदी कब खुशियाँ दे पाते हैं ,
प्यार पाने की धुन में नफरत के किले संवर गए ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़