गज़ल
मेरे जज़्बात से बिल्कुल ही बेखबर निकला
मेरा महबूब संगदिल किस कदर निकला
मुझे लगा था कि दो – चार बूँदें होंगी बस
छोटी सी आँख में अश्कों का समंदर निकला
दोबारा तुझसे न हो पाई मुलाकात कभी
उस रहगुज़र से यूँ तो मैं अक्सर निकला
कभी मंदिर, कभी मस्जिद तो कभी गिरजे में
मैं जिसे ढूँढता था वो मेरे अंदर निकला
जिसे संवारने में खर्च कर दी सारी उम्र
वो मेरा जिस्म तो किराए का इक घर निकला
— भरत मल्होत्रा