बचपन
वो बचपन वो नादानियाँ
न जाने
अब कहाँ चली गई,
घूमता फिरता था जहाँ
वो हसीन वादियाँ भी
न जाने
अब कहाँ चली गई।
बैठ जिस नदी किनारे
करता था अठखेलियां
वो नदी भी न जाने
अब कहाँ चली गई,
वो आम का वृक्ष
बैठ जिसके नीचे
देखता था अंबर और अवनि को
वो वृक्ष भी न जाने
अब कहाँ चले गए।
एक सखी थी
बड़ी प्यार सी
एक सखा था
बड़ा नटखट सा
मिल तीनों करते थे।
बड़ा धूम धड़ाक
पर न जाने
समय के पांव के संग
अब वो कहाँ चले गए
न अब बचपन रहा
न अब नादानियाँ रही
दोनों मिल अब
न जाने
कहाँ दूर चले गए।
— राजीव डोगरा