धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

यज्ञ एवं प्रदुषण

ओ३म्

परमात्मा ने इस सृष्टि को जीवों के भोग अपवर्ग (मोक्ष) के लिये बनाया है। परमात्मा द्वारा बनाई गई यह सृष्टि 1.96 अरब पुरानी होने पर आज भी हर दृष्टि से नवीनता शुद्धता को धारण किये हुए है। परमात्मा ने मनुष्यों के कल्याण के लिये सृष्टि के आरम्भ में वेदों का ज्ञान दिया था। मनुष्यों ने अपने आलस्य प्रमाद, स्वार्थ तथायमनियम के विरुद्ध अपने आचरण से अपने जीवनों को प्रदुषित तो किया ही है, वायुमण्डल, जल तथा प्र्यावरण को भी अशुद्ध, अपवित्र तथा प्रदुषित बनाया है। आज प्रदुषण मनुष्य व अन्य प्राणियों के जीवन को चुनौती दे रहा है। प्रायः सभी मनुष्य रूग्ण हैं। सबको कोई न कोई रोग है। समाज में पूर्ण स्वस्थ युवा व वृद्ध शायद ही मिल पायें। बच्चे भी जन्म-जात रोगी जन्म ले रहे हैं। जन्म होने के तुरन्त बाद वह अनेक रोगों से ग्रसित हो जाते हैं। मानसिक चिन्ताओं, आर्थिक एवं पारिवारिक समस्याओं से तो सभी लोग पीड़ित हैं। इन सब समस्याओं का निवारण वेद का स्वाध्याय, उनका ज्ञान, उसके अनुरूप जीवन आचरण तथा साधनों का मितव्ययता के साथ उपभोग सहित अपनी आवश्यकताओं को कम से कम रखकर अपने जीवन को प्रकृति के अनुकूल अनुरूप बनाना है।

मनुष्य ने वायु को नहीं बनाया है अपितु इसे विकृत ही किया है। वायु में विकृतियों के अनेक कारण हैं जिसका एक कारण हमारे श्वास-प्रश्वास से भी वायु में आक्सीजन की कमी तथा कार्बन-डाई-आक्साइड गैस की वृद्धि होती है। हम जो भोजन बनाते हैं उसमें ईधन का प्रयोग होता है जिसके जलने से वायु में अनेक प्रकार की गैसें निकलती हैं जो वायु को प्रदुषित करती हैं। वस्त्रों को धोने, घर का कूड़ा-करकट तथा भवन वा निवास का निर्माण भी वायु व जल सहित प्रकृति व पर्यावरण में अन्तुलन एवं प्रदुषण उत्पन्न करता है। वायु, जल व सृष्टि में प्रदुषण न हो, इसके लिये हमें अपनी जीवन शैली बदलनी होगी। यह सरल कार्य नहीं है। वेदों ने हमें इसके लिये अनेक उपाय बतायें हैं। इन उपायों में शौच वा स्वच्छता को अपनी जीवन शैली का अंग बनाने सहित प्रतिदिन प्रातः सायं अग्निहोत्रयज्ञ करने का विधान भी किया गया है। अग्निहोत्र एक बहुप्रयोजनीय कार्य है जिससे वायु का दुर्गन्ध वा प्रदुषण दूर होने सहित वर्षा का जल भी शुद्ध होता है। यज्ञ से किसान के खेतों में वर्षा होकर यह फसलों को खाद के समान उपयोगी उच्च गुणवत्ता के अन्न को उत्पन्न करने वाला होता है।

हमारा कर्तव्य है कि अपने स्वार्थ व सुख-सुविधाओं से युक्त जीवन शैली को अपनाकर हम वायुमण्डल व पर्यावरण को अशुद्ध व प्रदुषित न करें। दूसरा साधन यह है कि हमारे कारण जितना वायु व जल प्रदुषण होता है उतना व उससे अधिक मात्रा में हम प्रतिदिन प्रातः व सायं सूखी आम, पीपल, पलाश आदि की समिधाओं से शुद्ध गोघृत तथा मिष्ठ, सुगन्धित तथा ओषधीय सामग्री से अग्निहोत्र-हवन कर वायु के विकारों व दुर्गन्ध को दूर कर उसे विकार रहित तथा सुगन्धित करें। यह कार्य अग्निहोत्र-यज्ञ को करने से सम्पन्न होता है। अग्निहोत्र यज्ञ में जो गोघृत आदि पदार्थों की आहुतियां डालते हैं वह नष्ट न होकर अग्नि-देवता के द्वारा अत्यन्त सूक्ष्म होकर समस्त वायुमण्डल एवं आकाश में फैल जाती हैं और वायु से सम्पर्क करके उसकी अशुद्धियों को दूर कर उसे सुगन्धित करती हैं। हम घर में यज्ञ करते हैं तो इस यज्ञ से वायु के सुगन्धित होने का प्रत्यक्ष ज्ञान हमारी नासिका इन्द्रिय हमें कराती है। जब हम अपने घरों पर यज्ञ करते हैं, वहां कुछ घण्टो बाद कोई मित्र व अन्य व्यक्ति यदि घर पर आते हैं तो श्वास द्वारा वह सुगन्ध का अनुभव कर पूछते हैं कि क्या आपने हवन या यज्ञ तो नहीं किया है? वह बतातें हैं कि आपके घर की वायु में जो गन्ध, सुगन्ध व महक है वह मन व आत्मा को आनन्द देने वाली है। यह अनुभव हम सब का है। यज्ञ करने से वायु में गोघृत व ओषधि आदि पदार्थों के सूक्ष्म होकर फैल जाने से यज्ञकर्ता परिवार सहित आस-पड़ोस के लोगों की भी अनेक रोगों से रक्षा होती व कुछ रोग ठीक हो जाते हैं। यह आविष्कार वेद भगवान ने वेद में ऋषियों के द्वारा प्रचारित किया है। ऋषियों को बताया है कि हम जो यज्ञ प्रातःकाल करते हैं उसका प्रभाव सायं तक रहता है और जो सायं समय में यज्ञ करते हैं उसका प्रभाव दूसरे तीन प्रातःकाल तक रहता है।

यज्ञ करने से न केवल वायु, जल व पर्यावरण की शुद्धि होती है अपितु यज्ञ करते हुए मनुष्य ईश्वर से जो कामना करता है, ईश्वर उसे मनुष्य की पात्रता के अनुरूप पूरा करते हैं। यज्ञ करने वाला मनुष्य सदैव स्वस्थ रहते हुए अभावों से मुक्त तथा सुखी व भौतिक दृष्टि से सम्पन्न होने के साथ ईश्वर व आत्मा के ज्ञान से भी संयुक्त व समाविष्ट रहता है। यह के सब लाभ यथार्थ में होते हैं। यह कल्पना व अनुमान नहीं है अपितु यज्ञ करने वाले स्वयं ही इनका वर्णन करते हैं। यज्ञ करने से मनुष्य के पुण्य-कर्मों में वृद्धि होती है जिससे मनुष्य रोगों व अभावों सहित दुर्घटना आदि अनेक संकटों से बचता है और यदि हमारी किसी गलती से दुर्घटना होती भी है तो हमने अनुभव किया है कि यज्ञकर्ता मनुष्य उसमें भी चमत्कारिक रूप से बच जाता है। मनुष्य उन दुर्घटनाओं में बाल बाल बचन जाता है जिसमें उसके बचने की सम्भावना नहीं होती। अतः सभी गृहस्थी मनुष्यों को परिवार के साथ बैठकर प्रतिदिन प्रातः व सायंकाल की वेला में अग्निहोत्र यज्ञ अवश्य करना चाहिये। यह भी स्मरण रखना चाहिये कि हमारे महापुरुष व आदर्श राम, कृष्ण तथा ऋषि दयानन्द स्वयं यज्ञ करते व कराते थे और दूसरों को भी यज्ञ करने की प्रेरणा देते थे। यही कारण था कि हमारे पूर्वज न केवल एक सौ वर्ष अपितु 150 से 200 वर्ष तक की आयु का भोग करते थे। महाभारत में श्री कृष्ण व अर्जुन की आयु का उल्लेख है। इनकी आयु लगभग 120 वर्ष थी और यह युवाओं की भांति युद्ध करते थे। यह महापुरुष अपराजेय योद्धा थे। इसी प्रकार भीष्म पितामह बाल ब्रह्मचारी, वीर, साहसी, ज्ञानी तथा अपराजेय योद्धा थे। महाभारत युद्ध के समय उनकी आयु 180 वर्ष थी जिसका उल्लेख महाभारत ग्रन्थ में आता है। इन सब लाभों को प्राप्त करने के लिये ही ऋषि दयानन्द ने वेदों के आधार पर यज्ञ को प्रवृत्त किया था। ऋषि दयानन्द स्वयं प्रातः 3.00 बजे उठकर रात्रि 10.00 बजे तक 19 घंटे कार्य करते थे। वह सन् 1875 से सन् 1883 तक की अवधि के 8 वर्षों में लेखन, प्रचार, शास्त्रार्थ, समाज सुधार, पाखण्ड व अविद्या दूर करने के इतने बड़े कार्य कर गये हैं जिसे देखकर आश्चर्य होता है। यह सब कार्य उन्होंने लोगों द्वारा सर्वत्र उनका विरोध किये जाने के कष्टदायी वातावरण में किये। हमें तो उनका जीवन एक चमत्कारिक जीवन लगता है जिसमें ईश्वर की उन पर विशेष कृपा वा उसका विशेष योगदान एवं सहयोग प्राप्त था।

आजकल वायु में जो प्रदुषण हो रहा है उसमें वाहनों से निकलने वाला धुआं, उद्योगों की चिमनियों से निकलने वाला धुआं, भवन निर्माण कार्यो में धूल व पत्थरों के चूरे के फैलने से नुकसान सहित किसानों द्वारा अनावश्यक पुराली आदि को जलाना बताया जा रहा है। मनुष्य जो मलमूत्र विसर्जन करता है उससे भी वायु में दुर्गन्ध उत्पन्न होने से वायु प्रदुषित होती है। इन प्रदुषणों व अन्य प्रकारों से जो प्रदूषण होता है उसे हम इनके उपयोग व उपभोग को कम करके कम कर सकते हैं तथा अग्निहोत्र-यज्ञ से भी इनके कुप्रभावों से बच सकते हैं। हमारी सरकारों ने अग्निहोत्र यज्ञ सहित योग की भी उपेक्षा की थी। योग ने तो आज पूरे विश्व ने अपना ले लिया है। अग्निहोत्र-यज्ञ भी योग के समान ही मनुष्यों के लिये हितकर, कल्याणप्रद एवं अमृत के समान लाभकारी है। इसके अपनाने की सबसे अधिक आवश्यकता है।

ऋषि दयानन्द ने घरों में दैनिक अग्निहोत्र के प्रसंग में एक महत्वपूर्ण बात यह लिखी है कि घर में अग्निहोत्र हवन करने से यज्ञ के स्थान व आसपास का तापक्रम बढ़ता है जिससे वहां का वायु अग्नि के सम्पर्क में आकर गर्मी से फैलकर हल्का होकर ऊपर उठता है और रोशनदानों व खिड़की-दरवाजों से बाहर निकल जाता है। इसके साथ ही घर से बाहर निकले वायु का स्थान लेने के लिये बाहर की कुछ अधिक घनत्व वाली शुद्ध वायु घर के भीतर प्रविष्ट होती है जो अग्निहोत्र यज्ञ के सम्पर्क में आकर सुगन्धित एवं अशुद्धियों से मुक्त हो जाती है। यदि ऐसा करके घर की अशुद्ध वायु को बाहर न निकाला जाये और बाहर की शुद्ध वायु को घर के भीतर प्रविष्ट न कराया जाये तो घर के लोग अनेक रोगों से ग्रस्त हो सकते हैं। यज्ञ करने से मनुष्य रोगों से बचता भी है व रोग भी ठीक होते हैं। अतः आज के प्रदुषणयुक्त वातावरण में यज्ञ का करना सभी बुद्धिमान शिक्षित लोगों के लिए करणीय होना चाहिये। सब मनुष्यों को वेद व वैदिक जीवन शैली को अपनाकर अपने जीवन को सुखी, निरोग, दीर्घायु तथा परजन्म में उन्नति सहित अपने जीवन को मोक्षगामी बनाना चाहिये। सत्परामर्श देना हमारा काम है, मानना न मानना लोगों का व आपका काम है। इति ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य