कविता – गुनगुनी धूप
सुनहरी धूप अंतस्तल में समाई
बीते दिनों की यादें संग लाई ।
आँगन में कभी अपनों के संग
मस्ती करते रहते थे हम संग संग।
कहाँ गई वो धींगामस्ती
अम्मा की फटकार थी सस्ती।
काश फिर से अम्मा करे पूकार
जीवंत हो जाये प्रोढ़ावस्था लाचार।
यादों के संग करती अठखेली
एकाकी पन फिर भी बनी पहेली।
यादों के संग जीना होगा।
जीवन संध्या का हर ग़म सहना होगा।
किससे अब करूँ शिकायत
हर कोई अब फरियादी है।
— आरती राय