कविता

चल मुसाफिर! अकेला चलना अच्छा है।।

वक्त के साथ बदलना अच्छा है।
चल मुसाफिर! अकेला चलना अच्छा है।।
राह में और मौके भी मिलेंगें।
मुहब्बत भी मिलेगी धोखे भी मिलेंगें।।
पत्थरो की पीर सा पिघलना अच्छा है।
चल मुसाफिर! अकेला चलना अच्छा है।।

ये शहर अब खुदाओ का डेरा हुआ है।
अँधेरा है, कहते सवेरा हुआ है।।
खाली हैं सड़कें, तारे गगन में।
चलते रहो तुम अपनी मगन में।।
गिर जो गए खुद सम्भलना अच्छा है
चल मुसाफिर! अकेला चलना अच्छा है।।

तनहाइयों को साथ मान लेना।
परछाइयों को हाथ मान लेना।।
जो जैसा दिखता होता नही है।
हँसता जो चेहरा क्या रोता नही है?
उदासी से हँसकर निकलना अच्छा है।
चल मुसाफिर! अकेला चलना अच्छा है।।

सौरभ दीक्षित मानस

नाम:- सौरभ दीक्षित पिता:-श्री धर्मपाल दीक्षित माता:-श्रीमती शशी दीक्षित पत्नि:-अंकिता दीक्षित शिक्षा:-बीटेक (सिविल), एमबीए, बीए (हिन्दी, अर्थशास्त्र) पेशा:-प्राइवेट संस्था में कार्यरत स्थान:-भवन सं. 106, जे ब्लाक, गुजैनी कानपुर नगर-208022 (9760253965) [email protected] जीवन का उद्देश्य:-साहित्य एवं समाज हित में कार्य। शौक:-संगीत सुनना, पढ़ना, खाना बनाना, लेखन एवं घूमना लेखन की भाषा:-बुन्देलखण्डी, हिन्दी एवं अंगे्रजी लेखन की विधाएँ:-मुक्तछंद, गीत, गजल, दोहा, लघुकथा, कहानी, संस्मरण, उपन्यास। संपादन:-“सप्तसमिधा“ (साझा काव्य संकलन) छपी हुई रचनाएँ:-विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में कविताऐ, लेख, कहानियां, संस्मरण आदि प्रकाशित। प्रेस में प्रकाशनार्थ एक उपन्यास:-घाट-84, रिश्तों का पोस्टमार्टम, “काव्यसुगन्ध” काव्य संग्रह,