संस्मरण

अतीत की अनुगूंज – १० : नैंसी का परिवार

सितम्बर में नया सत्र शुरू हुआ।  उस वर्ष मुझे पहली कक्षा को पढ़ाना था।  रंगा रंगी बच्चे। सब एक उम्र के मगर कोई समानता नहीं उनमे।  ३० में से दस बच्चे गोरे  अवश्य कहे जाएंगे मगर सबके माँ बाप अलग अलग देशों की खुरचन। अब कोई भूखा नंगा तो है नहीं इंग्लैंड में जो आप दावे के साथ उनकी सामाजिक पायदान सुनिश्चित कर सकें।  इतने छोटे बच्चों की मायें लगभग २५ से ३५ वर्ष की आयु  के कोष्ठक में रखी जा सकती थीं औसतन। अक्सर बहुत कम उम्र की भी होती थीं मगर बड़ी उम्र की नहीं।  सब एक से एक फैशन करके आती थीं। बच्चों को स्कूल छोड़कर अपने काम पर निकल जाती थीं।  पिता कम ही दिखाई देते थे।
         एक हफ्ते के बाद एक अधेड़ उम्र  की माँ दो एक जैसे बच्चों का हाथ पकड़े आई।  उसने नाम बताये टेरेंस और नैंसी। मैं चौंकी।  टेरेंस तो लड़का था पर नैंसी ? नेकर और शर्ट में वह क्या थी ? बच्चों को रजिस्टर पर चढ़ाते हुए मेरा चेहरा मेरे संशय की गवाही दे रहा था।  नैंसी की माँ ने सहज भाव से कहा कि वह दोनों जुड़वाँ भाई बहन हैं। उसके आठ बच्चों में केवल यही एक बेटी है पर इसको यह समझाना मुश्किल है। सभी भाईयों से अलग कपडे आदि उसको नहीं चाहिए इसलिए उसको भी टेरेंस की तरह रहना है।  नैंसी की आवाज़ सुनने के लिए मुझे सारा दिन इन्तजार करना पड़ा।
         अब यह दायित्व मुझपर आन  पड़ा कि मैं नैंसी को उसकी सही अस्मिता बताऊँ।  सहज पके सो मीठा।  पहले हफ्ते वह टेरेंस से ही चिपकी रही।  दूसरे में मैंने दोस्ती पर जोर देकर सारे कार्यक्रम की योजना बनाई।  सब बच्चों को दो समूहों में बाँट दिया।  समझाया कि जो भी एक पक्का दोस्त बनाना चाहे हाथ ऊपर करे। उसको सामने वाले समूह में से दोस्त चुनना होगा।  जिसे चुन लिया जाए वह मना नहीं कर सकता। जोड़ी बन जाने पर अलग बैठ जाए दो दो की क़तार में।  पहले ही वार में मैंने रेचेल नाम की बच्ची को इशारा कर दिया था।  मुझे अंदेशा था कि शर्मीली नैंसी हाथ नहीं उठाएगी।  जब रेचल ने हाथ उठाया तो उसने नैंसी  को चुन लिया।  इसी तरह सब जोड़े तय हो गए।  अब नैंसी रेचेल और उसकी सखियन के संग रहने खेलने लगी।  फिर भी उसको गुड़ियों से खेलना तनिक न भाता।  वह मुझसे आकर लिपट जाती।  मैं उसको किसी निर्माण योजक खेल में लगा देती।
          खेल के मैदान में भी वह मुझको ढूंढती।  वहां की ड्यूटी परिचारिकाओं ने शिकायत की।  लंच टाइम डेढ़ घंटे का होता था। दस पंद्रह मिनट में खाना खाकर हम अन्य तैयारियां करते थे।  नैंसी को मैं पास बैठा लेती थी।  अन्य बच्चे पढ़ते तो वह भी सुनती।  बहुत धीरे धीरे किताबों के माध्यम से तस्वीरों के ज़रिये मैंने उसको लड़की होने का अहसास करवाया।  आखिर एक दिन —
        सुबह पौने नौ बजे उसका पिता उसे स्कूल की स्कर्ट और ब्लाउज़ में सजाकर लाया।  उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था।  नैंसी ,कोमल ,सुन्दर अपने नए परिधान में उसका हाथ पकड़े आई।  रोज की तरह मुझसे लिपट गयी।  उसका पिता भी माँ की तरह अधेड़ व्यक्ति था। बेहद शालीन ढंग से उसने मुझे थैंक्स कहा और चला गया।
       कॉफी ब्रेक में मैंने अपनी प्रधान अध्यापिका को बताया। मैंने कहा कि उसका पिता बहुत प्रभावी व्यक्तित्व वाला है। सूट टाई आदि पहने था।  सभ्रांत लगता है।  यह सुनकर कई   व्यंगभरी   मुस्कानें और दबे हास्य  फूटे।  प्रधान तो मुंह घुमाकर अपने कक्ष में जा बैठी।  सूज़न ने साफ़ किया। बताया कि वह डेनियल का भी पिता है। वही डेनियल जो रोज़ मुझको गंदे फिकरे निकाल कर  तंग करता था।  अपनी साइकिल को मेरे कमरे की खुली छत  पर चढ़ाकर स्टंटबाजी करता था।  घर जाते समय मैं उसके घेराव से डरती  थी और कोई भी इस विषय में  कुछ नहीं करता था।
         नैंसी और टेरेंस उस गुंडे से लड़के के बहन भाई थे यह अविश्वस्नीय  था। सुनकर अभी उबर भी न पाई थी की इलेन बोली वह हैंडसम आदमी जो आया था वस्तुतः जेल से पैरोल पर आया  है। केवल चार दिन के लिए।  ब्रिक्सटन प्रिजन में बंद है पंद्रह साल के लिए। उसने ग़बन किया था बैंक का मैनेजर था।  हर बार  एक नया बच्चा पैदा करता रहा जबतक उसकी बीबी पैदा करने लायक थी।
         मैं सकते में आ गयी ।  सचमुच रूप रंग से किसी को सभ्य सुसंस्कृत मान लेना कितना घातक हो सकता है।  इलेन ने आगे कहा की उस जगह कई ऐसे ही बच्चे गुनाहों के साये में बड़े हो  रहे थे।  ३० में से १० के माँ या बाप जेल में थे।
         अगली बार अभिभावकों की मीटिंग हुई तो मैंने नैंसी की माँ से डेनियल का जिक्र किया।  बहुत दिनों से उसको नहीं देखा था।  वह बिना लाग लपेट के बोली जबसे आपने नैंसी को इतने प्यार से रखा है वह खुद ही शर्मिंदा हो गया है।  क्या करूँ ,मेरा भाग्य ही ऐसा है।  डेनियल मेरा तीसरा है। उससे बड़ा रिमांड होम में पड़ा है।  सबसे बड़ा अब काम पर लग गया है।  उसको दीवार बनाने की ट्रेनिंग दी जा रही है।  मेरे पति के भाई बहन आदि खूब बड़ा परिवार है मगर कोई ठीक नहीं है।  सबके यहां कोई न कोई अपराधी जरूर है।  सब हमारी सासु  के लाडले  .न वह खुद कोई नियम मानती है और न उसके बच्चे।  मेरा पति पढ़ा लिखा था। बैंक में अच्छी नौकरी थी मगर जाने कब उसको भी अपराध के  कीड़े ने काट खाया।  दूसरों को अपने जैसा न समझो तो तुम स्वार्थी बन जाते हो। जुआ खेलने लगा।  पैसा कहाँ से आता ? बैंक से।  काट रही हूँ  जैसे तैसे।   अब बाद वाले बचे रहें बस यही दुआ करती हूँ।  अगले वर्ष मेरी देवरानी का बेटा भी तुम्हारे पास आ जायेगा।  उसकी बेटी क्लेयर दो वर्ष पहले तुम्हारी क्लास में थी।
          मेरी आँखें फैल गईं। क्लेयर ,मेरी सबसे प्यारी छात्रा ! वह बोली कि घर में चार भाइयों के आगे सत्रह बच्चों में केवल दो लडकियां हैं। क्लेयर और नैंसी। ओफ़ ! दोनों कितनी सुन्दर ,रेशम में लिपटी फूलों की डाली जैसी। और भाई ? सब के सब बिगड़े नवाब !
          यहां भी अभी तक पुरुषवाद चलता है कई परिवारों में।  ईश्वर टेरेंस को ऐसा ही भोला ,कुशाग्र रखे !!अभी से पढ़ने लगा है। जोड़ घटाना समझता है।  ऐसे पारिवारिक माहौल में  संस्कार के बिना कहाँ तक पहुंचेगा ?

*कादम्बरी मेहरा

नाम :-- कादम्बरी मेहरा जन्मस्थान :-- दिल्ली शिक्षा :-- एम् . ए . अंग्रेजी साहित्य १९६५ , पी जी सी ई लन्दन , स्नातक गणित लन्दन भाषाज्ञान :-- हिंदी , अंग्रेजी एवं पंजाबी बोली कार्यक्षेत्र ;-- अध्यापन मुख्य धारा , सेकेंडरी एवं प्रारम्भिक , ३० वर्ष , लन्दन कृतियाँ :-- कुछ जग की ( कहानी संग्रह ) २००२ स्टार प्रकाशन .हिंद पॉकेट बुक्स , दरियागंज , नई दिल्ली पथ के फूल ( कहानी संग्रह ) २००९ सामायिक प्रकाशन , जठ्वाडा , दरियागंज , नई दिल्ली ( सम्प्रति म ० सायाजी विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी एम् . ए . के पाठ्यक्रम में निर्धारित ) रंगों के उस पार ( कहानी संग्रह ) २०१० मनसा प्रकाशन , गोमती नगर , लखनऊ सम्मान :-- एक्सेल्नेट , कानपूर द्वारा सम्मानित २००५ भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान हिंदी संस्थान लखनऊ २००९ पद्मानंद साहित्य सम्मान ,२०१० , कथा यूं के , लन्दन अखिल भारत वैचारिक क्रान्ति मंच सम्मान २०११ लखनऊ संपर्क :-- ३५ द. एवेन्यू , चीम , सरे , यूं . के . एस एम् २ ७ क्यू ए मैं बचपन से ही लेखन में अच्छी थी। एक कहानी '' आज ''नामक अखबार बनारस से छपी थी। परन्तु उसे कोई सराहना घरवालों से नहीं मिली। पढ़ाई पर जोर देने के लिए कहा गया। अध्यापिकाओं के कहने पर स्कूल की वार्षिक पत्रिकाओं से आगे नहीं बढ़ पाई। आगे का जीवन शुद्ध भारतीय गृहणी का चरित्र निभाते बीता। लंदन आने पर अध्यापन की नौकरी की। अवकाश ग्रहण करने के बाद कलम से दोस्ती कर ली। जीवन की सभी बटोर समेट ,खट्टे मीठे अनुभव ,अध्ययन ,रुचियाँ आदि कलम के कन्धों पर डालकर मैंने अपनी दिशा पकड़ ली। संसार में रहते हुए भी मैं एक यायावर से अधिक कुछ नहीं। लेखन मेरा समय बिताने का आधार है। कोई भी प्रबुद्ध श्रोता मिल जाए तो मुझे लेखन के माध्यम से अपनी बात सुनाना अच्छा लगता है। मेरी चार किताबें छपने का इन्तजार कर रही हैं। ई मेल [email protected]