कहानी

जीवन की साँझ

रामदीन का पुश्तैनी पेशा मिट्टी के बर्तन एवं खिलौने बनाना था और उसके द्वारा बनाए गए सामान, उसके गाँव के पास के हाट में हाथों-हाथ बिक जाते थे। घर-गृहस्थी बड़े आराम से चल रही थी। रमेश उसका एकलौता बेटा था जो पढ़ने में बहुत ही ज़हीन था।
रमेश के मास्टर साहब, एक दिन रामदीन से बोले – “रामदीन ! देखना, रमेश एक दिन इस गाँव का नाम रौशन करेगा जैसे कमल ने किया।”
रामदीन ने भी रमेश की पढ़ाई के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी और एक दिन रमेश इंजीनियरिंग की पढ़ाई समाप्त कर शहर की एक फैक्ट्री में नौकरी करने लगा। जब रमेश की नौकरी लगी तो वह अपने पिता जी को अपने साथ, शहर ले जाने के लिए घर आया और अपने पिता जी से बोला – “बाबू जी, आप मेरे साथ शहर चलें, वहाँ मुझे बंगला मिला है। आपने मेरे लिए बहुत मेहनत की है, अब आराम करने की बारी आपकी है।”
रामदीन बोला – “ बेटा, हमलोग मजदूर आदमी है, बिना मेहनत किए हम कहीं नहीं रह सकते।”
रमेश जिद्द करके बोला – “बाबू जी, आप चलिए, वहाँ आपके मित्र, कमल के पिता जी भी तो रहते ही हैं।”
बेटे के जिद्द के आगे रामदीन को झुकना पड़ा और अपनी पत्नी एवं बेटे के साथ शहर में आ गया। अभी दो दिन ही बीते थे कि रामदीन ने अपने बेटे से कहा – “ बेटा ! बिना मेहनत किए मैं रह नहीं सकता, बैठे-बैठे मेरा सारा बदन टूट रहा है।”
रमेश ने कहा – “बाबू जी ! दिन भर आप अकेले रहते है इसलिए आपका यहाँ मन नहीं लग रहा। ऐसा करते है, कल रविवार की छुट्टी है। मैं आपको अपने प्रिय मित्र कमल के पिता जी, सुरजचंद जी से मिलवाने ले चलूँगा।”
रमेश अपने पिता जी को को ले कर कमल के यहाँ पहुँचा। रामदीन ने एक लॉन के बीच बंगले को देखकर अपने बेटे से पूछा – “सुरजचंद यहीं रहता है?”
रमेश ने कहा – “हाँ बाबू जी ! कमल जी ही मेरे बॉस हैं।”
न चाहते हुए भी रामदीन को सुरजचंद की किस्मत पर रश्क हो आया। बंगले में प्रवेश करते ही कमल ने नमस्ते काका कह कर रामदीन का स्वागत किया, तो आशीर्वाद देकर चहकते हुए कमल से कहा – “ बेटा ! अब जल्दी से सुरजचंद को बुलाओ, लगभग दस साल के बाद उससे मिलूँगा।”
कमल ने कहा – “पिता जी को घुटनों में दर्द रहता है इसलिए उनको चलने-फिरने में तकलीफ़ होती है।”
कमल ने आवाज़ लगाई- “रामू काका!”
रामदीन की ही उम्र एक आदमी आया और कमल के सामने खड़ा हो कर कहा – “जी साहेब !”
कमल ने कहा – “देखो ! चाचा जी को पिता जी के कमरे में ले जाओ।”
रामदीन, रामू के पीछे-पीछे हो लिए। एक कमरे की ओर इशारा कर रामू वहाँ से चला गया। रामदीन ने जब कमरे में प्रवेश किया तो एक जीर्ण-शीर्ण शरीर वाला व्यक्ति बिस्तर पर लेटा हुआ था। पास जाने पर मुश्किल से सुरजचंद को पहचाना तभी सुरजचंद बोल पड़े – “अरे ! रामदीन भाई, यहाँ कैसे?” सुरजचंद का चेहरा खिल उठा।
“लोहे को तपा कर अपने मन-मुताबिक ढालने वाले सुरजचंद, ये क्या हाल बना लिया है?”- रोते हुए रामदीन ने कहा।
“क्या बताऊँ ? जब मैं यहाँ आया तो कमल ने जैसे मुझे इस महल में कैद ही कर दिया। यहाँ किसी चीज़ की कमी नहीं है, परन्तु, स्वेच्छा से कोई काम नहीं कर सकता था। शुरू में तो बदन दर्द करता था फिर घुटनों में दर्द, अब तो चलना-फिरना भी मुहाल हो गया है।” ये कहते हुए सुरजचंद के आँखों से आँसू निकल पड़े।
भारी मन से रामदीन अपने बेटे के साथ लौटे। अगली सुबह रामदीन ने अपने बेटे से कहा कि मैं सुरजचंद जैसी ज़िन्दगी नहीं जी सकता। मुझे यहाँ अपना काम करने दो या मुझे गाँव छोड़ दो।
“कैसी बात करते हैं बाबू जी? यहाँ पर कुम्हार का काम करेंगे तो लोग क्या कहेँगे।”- रमेश ने कहा।
बाप-बेटे में अभी बहस चल ही रही थी तभी घर में प्रवेश करते हुए कमल ने कहा – “लो काका! आपका चश्मा मेरे यहाँ छूट गया था, वही देने आया हूँ, परन्तु यहाँ किस विषय पर, आप दोनों में बहस छिड़ी हुई है?”
रमेश ने नाराजगी दिखाते हुए कहा – “ देखिए ना ! बाबू जी अपनी जिद्द पर अड़े हैं कि या तो मुझे यहाँ कुम्हार का काम करने दो या फिर गाँव भेज दो।”
यह सुनकर कमल गंभीर स्वर में बोला – “काका सही कह रहे हैं, मैंने अपने बाबू जी को अपाहिज बना दिया और मैं नहीं चाहता कि काका का भी यही हाल हो। रमेश ! हमें समझना होगा कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता, जिस काम को करने में हमें ख़ुशी मिले, उसी काम को करना चाहिए।” “परन्तु लोग क्या कहेंगे?” – रमेश ने झुँझलाते हुए कहा।
“इस समस्या का भी हल है मेरे पास। काश ! मेरी ये सोच पाँच साल पहले होती तो आज मेरे बाबू जी का ये हाल नहीं होता। ” – कमल ने कहा।
रामदीन और रमेश आशाभरी नज़रों से कमल को देख रहे थे।
कमल ने कहा – “ आजकल बच्चों की गर्मियों की छुट्टियाँ चल रही हैं, क्यों ना हम एक पॉटरी एवं क्ले टॉय का वर्कशॉप लगाए, जिसमें काका बच्चों को मिट्टी के बर्तन एवं खिलौने बनाना सिखाएंगे।”
यह सुनकर, रामदीन और रमेश का चेहरा खिल उठा। रमेश ने चहकते हुए कहा – “यह सुझाव बहुत ही अच्छा है।” (यह कहते हुए, रमेश ने भावुक होकर कमल को गले से लगा लिया।)
रमेश के दस-पंद्रह दिन की कड़ी मेहनत ने रंग दिखाया और पॉटरी एवं क्ले टॉय का वर्कशॉप खुल गया, जिसका उदघाटन करने सूरजचंद जी आए थे।
वर्कशॉप में पॉटरी एवं क्ले टॉय को सीखने आए बच्चों को देख कर रामदीन एवं सूरजचंद की आँखों में ख़ुशी के आंसू आ गए। सूरजचंद ने रामदीन को गले लगाते हुए कहा – “रामदीन ! जीवन की इस ढलती साँझ में सूरज तो डूब रहा है, परन्तु, आज से तुम्हारे जीवन में पूर्णिमा का चाँद निकला है और साथ में तारे रुपी बच्चे तुम्हारे जीने की उम्मीद को जगमगाते रहेंगे।”
“सही कहा है, सूरजचंद भाई!” – रामदीन ने ख़ुशी के आंसू पोछते हुए कहा।

© राकेश कुमार श्रीवास्तव “राही”

राकेश कुमार श्रीवास्तव 'राही'

जन्मदिन :13-03-1968 पत्नी का नाम : श्रीमती काजल किरण: मनोविज्ञान में कला स्नातक (प्रवीण) शादी की सालगिरह : 20 जून पिताजी का नाम : स्व. प्रो. सुरेंद्र प्रसाद वर्मा माता का नाम : ललिता वर्मा डायरी के पीले होते पन्नों से, किशोरावस्था में लिखी हुई रचनाओं एवं विचारों को मुक्त कर अपने ब्लॉग “राकेश की रचनाएँ” पर लिख, ब्लॉग यात्रा शुरू करने वाले श्री राकेश कुमार श्रीवास्तव “राही” मूलतः मोतिहारी, बिहार के रहने वाले हैं और विगत पच्चीस वर्षों से भारतीय रेल के यांत्रिक अभिकल्प (मैकेनिकल डिज़ाइन) विभाग में अपना योगदान देने के अलावा हिंदी के विकास में अपना योगदान देते आए हैं। जिसके फलस्वरूप इन्हें विभागीय स्तर पर विभिन्न पुरस्कारों के अलावा विभिन्न पत्रिकाओं में इनके यात्रा-वृत्तांत, लघु-कथाएँ एवं कविताएँ प्रकाशित हुई हैं। मोबाइल न. 6283318250 ईमेल पता :[email protected] ब्लॉग : राकेश की रचानाएँ लिंक : https://rakeshkirachanay.blogspot.com/