लघुकथा – लौटते कदम
कल कोर्ट में आखिरी फैसला होने वाला था । ऑफिस से थोड़ा पहले निकल कर अमृता वकील से मिलने चली गई।
हे भगवान जिसका शक था वही हुआ ! सामने एडवोकेट मि.भूषण के दरवाजे से रवि निकल रहे थे। हूँऊ…भाभी झूठ नहीं कहती हैं, इन वकीलों को अपनी फीस सालों साल मिलती रहे इसी चक्कर में क्लांइट को घन-चक्कर बना देते हैं।
उसकी सोच को विराम लगा जब रवि की आवाज कानों में पड़ी ; “कैसी हो अमृता ? कल आखिरी फैसला हो जायेगा हमारे जीवन का ,क्या कभी तुमने यह महसूस नहीं किया कि प्यार हमने किया, झगड़े एवं अनबन भी हम दोनों के बीच ही रहा , सुलह या अलग होने के फैसले भी हम दोनों के होने चाहिए ।”
यह सब कहते हुए स्नेसिक्त नज़रों से रवि अमृता को निहारने लगे। सारी कटुता जाने कहाँ तिरोहित होने लगी !!
रवि को वह सुन कहाँ पा रही थी,उसके कानों में तो पूरे परिवार की कटूता वकील से क्या कहना है,बहस में। अपना पक्ष मजबूत रखने के लिये कैसे-कैसे लांछन रवि के परिवार वालों पर लगाने हैं, वही सब गूँज रहे थे।
फिर भी मन के किसी कोने में एक सवाल बार बार उसे परेशान कर रहा था , परित्यक्ता कहलाने के बाद वह कैसे आगे का जीवन जीयेगी ?
अंदर तक काँप उठी ‘ओह पिछले साल भर से तलाक के लिए लड़ रही थी ,अब आगे समाज के तानों से भी लड़ना पड़ेगा । क्या लड़ना ही नियति है अब मेरी ?
“अमृता कहाँ खो गई ?”
चैतन्य होते हुए अमृता शिष्टाचार वश सवाल के जवाब में सवाल कर बैठी ; “आप बताइये आप कैसे हैं ?”
“अमृता क्या हम दोनों आखिरी बार कॉफी हाउस में चल कर अपनी कॉफी एक दूसरे से साझा कर सकते हैं ?”
बेध्यानी में अमृता के मुँह से निकल गया ; “शुभ शुभ बोलें आखिरी बार नहीं फिर एक बार ।”
— आरती राय