“पंक से मैला हुआ है आवरण”
सभ्यता, शालीनता के गाँव में,
खो गया जाने कहाँ है आचरण?
कर्णधारों की कुटिलता देखकर,
देश का दूषित हुआ वातावरण।
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सुर हुए गायब, मृदुल शुभगान में,
गन्ध है अपमान की, सम्मान में,
आब खोता जा रहा अन्तःकरण।
खो गया जाने कहाँ है आचरण?
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शब्द अपनी प्राञ्जलता खो रहा,
ह्रास अपनी वर्तनी का हो रहा,
रो रहा समृद्धशाली व्याकरण।
खो गया जाने कहाँ है आचरण?
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लग रहे घट हैं भरे, पर रिक्त हैं,
लूटने में राज को, सब लिप्त हैं,
पंक से मैला हुआ है आवरण।
खो गया जाने कहाँ है आचरण?
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(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)