इत्तेफाक
उनका सरेराह मिलना कोई इत्तेफाक न था
गुलों का बहारों में खिलना कोई इत्तेफ़ाक न था
लाइलाज हो गए थे हम तेरे इश्क़ में जब
रिसते जख्मों को सिलना कोई इत्तेफाक न था।
मेरी हर तन्हाई आबाद रही तेरी यादों से
रेत मुट्ठी से फिसलना कोई इत्तेफाक न था।
ख्वाहिशो का शीशमहल टूट कर जब चूर हो गया
मेरा उठ के संभलना कोई इत्तेफाक न था।
रूठे जुगनुओं को मनाने चाँद जमीं पे उतर आया
‘मन’ इश्क़ की इंतेहा ये कोई इत्तेफ़ाक न था।
— गीता गुप्ता ‘मन’