गीत
कल्प सरीखे बीत रहे दिन ।
रातें कटती तारे गिन गिन ।
जैसे हरियाली बिन सावन ।
जैसे बिना कल्पना के मन ।
जैसे फूल बिना सौरभ के ,
जैसे फूलों के बिन उपवन।
प्रियतम हम ऐसे हैं तुम बिन ।
कल्प सरीखे ……………….
ये विरहा की काली रातें ।
निष्ठुर सपने शूल चुभाते।
गीत ,गजल, मुक्तक ,रुबाई,
– आकर तेरी याद दिलाते ।
भूल न पाये तुमको पल छिन।
कल्प सरीखे…………….
चहुँ दिशि है लोगों का मेला ।
मैं मेले में बहुत अकेला ।
शाम ढले सब ढलने लगता ,
लाती नींद ,निशा की वेला ।
फिर डसती सपनों की नागिन,
कल्प सरीखे ……………….
————-© डॉ दिवाकर दत्त त्रिपाठी
जनरल सर्जरी विभाग
बी आर डी मेडिकल कॉलेज
गोरखपुर