रूपमाला छंद
बचपने की ढल गयी है ,खूबसूरत शाम ।
करवटें बदली उमर ने ,तज सुखद आराम ।
खो गए वो दिन पुराने ,खो गए सब खेल ।
एक दिन लड़ना झगड़ना ,दूसरे दिन मेल ।
मीत वो सारे रसीले ,इक हसीं अहसास ।
माँ सुनाती लोरियां जो थी बहुत वो खास।
शोर कक्षा में मचाते, हाल कर बेहाल ।
मेज को तबला बनाकर थे मिलाते ताल ।
बारिशों में नाव कागज की चलाते खूब ।
घूमना वह पाँव नंगे नित मुलायम दूब
हाय!तन्हाई सताती बचपना मासूम ।
ढूंढती हूँ मिल गया तो गोद भर लूं चूम ।
— रीना गोयल