कुण्डलिया – नारी क्यारी बाग की
(1)
कितना वहशी हो गया , देखो रे इंसान।
लाज – हया धो पी गया , दिखती कोरी शान।।
दिखती कोरी शान, न समझे बहना माता।
क्यों दी मानव – देह , बता दे अरे विधाता!!
श्वान सुअर – सा काम, भरा मानव – तन इतना।
पामर पापी क्लीव , हुआ तू वहशी कितना??
(2)
जाया जिसने देह से , उसका जबरन भोग ?
पशु से पामर नीच नर , कैसा कुत्सित रोग ??
कैसा कुत्सित रोग , न छोड़े माता बहना।
अरे नीच ! नर -श्वान !! ‘कर्म’ तेरा क्या कहना !!
बनता चीता शेर , यौनि क्यों नर की पाया ?
उससे ही सम -भोग , मानवी थी तव जाया ??
(3)
मानव – तन की खाल में, मिलते शूकर श्वान।
पहन बगबगे वसन वे , बनते बड़े जवान ??
बनते बड़े जवान, नहाते यमुना – गंगा।
छिपे वेश के बीच , भेड़िए बिल्ला – रंगा।।
भोलीभाली नारि, बचे कैसे नर – दानव।
सबला बनकर जीत , सकेगी वहशी मानव।।
(4)
सबला हो सबला रहो, दो वहशी को चीर।
अंग काट प्रतिशोध लो , छेदो तन ले तीर।।
छेदो तन ले तीर, दुसह दुर्गा बन जाओ।
बचा आन औ’ मान, शेरनी बनकर खाओ।।
लगे न दामन दाग, नहीं हो अब तुम अबला।
‘शुभम’ न काँपे हाथ , बहन माता सब सबला।।
( 5 )
नारी क्यारी बाग की, प्रसरित विमल सुगंध।
घर – घर में बिखरी रहे, जिसकी पावन गंध।।
जिसकी पावन गंध, पुरुष है जिसका माली।
होता है हर धाम , बिना घरनी के खाली।।
‘ शुभम ‘ करें सम्मान , न उजड़े घर की बारी।
होता स्वर्ग समान, जहाँ पूजित है नारी।।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’