ग़ज़ल- *****ग़लती की*****
सबने जिसको छोड़ा उसको क्या अपनाकर ग़लती की.
मैंने फ़र्ज़ निभाया तो क्या फ़र्ज़ निभाकर ग़लती की.
सोचा था इक मौका दूँ वो अपनी भूल सुधार करे,
लेकिन उसने फिर दोबारा मौका पाकर ग़लती की.
उसके घर में आग लगी थी मेरा घर भी जल जाता,
तो क्या मैंने उसके घर की आग बुझाकर ग़लती की.
सच को सच ना कह पाता वो तो फिर चुप ही रह जाता,
उसने मेरे हर इक सच को झूठ बताकर ग़लती की.
उसको कोई कुछ ना बोला जिसने दीप बुझाया था,
मुझ पर बिगड़े जैसे मैंने दीप जलाकर ग़लती की.
यह लगता था वो अपना है उससे राज़ छुपाना क्या,
पर अब लगता शायद उससे राज़ बताकर गलती की.
पिंजरा खोल उड़ाकर पंछी मैंने जो खुशियाँ पायीं,
वो क्या जाने जिसने हरदम जाल बिछाकर ग़लती की.
— डॉ. कमलेश द्विवेदी