गीत – छलिया आदमी
आदमी ही आदमी को छल रहा है।
आदमी से आदमी क्यों जल रहा है।।
मान – मर्यादा हुई तार – तार इतनी!
टूटी सरहद मान की लगातार कितनी??
आदमी को आदमी क्यों खल रहा है।
आदमी ही आदमी को छल रहा है।।
सड़क पर नारी की इज्जत जा रही।
हैवानियत पागल खड़ी मुस्का रही।।
भावी – उदर में कौन सा विष पल रहा है।
आदमी ही आदमी को छल रहा है।।
कौन कहता है कि तू शिक्षित पढ़ा है !
तू वही है जो कि मंगल पर चढ़ा है??
कितना उज्ज्वल देख तेरा कल रहा है।
आदमी ही आदमी को छल रहा है।
भेड़िए भूखे जिसम को नोंचते हैं।
बुद्धिजीवी लेखनी गह सोचते हैं।।
नेता गिरगिट की तरह क्यों चल रहा है?
आदमी ही आदमी को छल रहा है।।
नीति – नैतिकता का बंटाधार है।
हैवान से इंसान की हर हार है।।
क़ानून में अब तक न कोई हल रहा है।
आदमी ही आदमी की छल रहा है।।
भेड़ियों का सिर कुचलना ही पड़ेगा।
इंसाफ़ को निज सत्यपथ चलना ही पड़ेगा।
‘शुभम ‘का मन क्रोध से जल- ‘बल रहा है।
आदमी ही आदमी को छल रहा है।।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’