व्यंग्य – मैं …. शपथ लेता हूँ कि
बात -बात में शपथ लेने की बात करना कुछ लोगों का स्वभाव होता है। अपनी सौगंध , आपकी सौगंध, गंगा की सौगंध , भगवान की सौगंध और न जाने कितने प्रकार की रंगबिरंगी सौगंध(शपथ) देखने -सुनने को प्रायः मिल ही जाती है। कुछ लोगों का तो सौगंध खाना या लेना एक स्थाई तकिया कलाम ही बन जाता है , जिसके चलते उनकी कोई बात बिना सौगंध खाए पूरी नहीं होती।
जब विवाह होता है तो फेरों (भाँवरों) के वक्त दूल्हा -दुल्हन से भी सात वचन रूपी कसमें ही तो दिलाई जाती हैं , कि वे जीवन भर इन सात वचनों का निर्वाह करते हुए परस्पर साथ निभाएंगे। एक दूसरे से सुख -दुःख में साथ रहेंगे। पर विवाह होने के बाद क्या कभी याद भी किया जाता है कि हमने फेरों के वक्त कोई सौगंध भी ली थी।अन्य वैवाहिक रस्मों की तरह यह भी एक महत्वपूर्ण रस्म की तरह पूरी हो लेती है औऱ दो अपरिचित परिचय के प्रगाढ़ बंधन में बंधकर तन -मन से एक हो जाते हैं।पर उन सात वचन रूपी शपथ की याद शायद ही कभी आती हो।
जिंदगी इसी प्रकार चलती सरकती रहती है और सौगंध की एक भी गंध का अनुनासिकाकरण कभी पुनरस्मृत नहीं ही होता। क्या सौगंध का मूल्य मात्र इतना ही है।
यह तो हुई हमारे निजी जीवन की बात। यदि राजनीतिक या सामाजिक जीवन में सौगंध की बात की जाए तो अनुनासिकाकरण के नाम पर
मात्र खोखली रस्म अदायगी ही नज़र आती है।एक रस्म अदा करने करवाने के लिए जनता का करोड़ों रुपये दशहरे दीवाली की आतिशबाजी की तरह फूँक दिया जाता है। ‘मैं ……निष्ठापूर्वक शपथ लेता हूँ कि ……’के ये कुछ महत्वपूर्ण शब्द और क्षण जितने महत्वपूर्ण होने चाहिए , उतने नहीं रहने पाते। क्योंकि यह भी एक रस्म -अदायगी मात्र बनकर रह जाती है,विवाह की भावरोँ के सात वचन की तरह।
जीवन की सारी संस्कार शाला की नींव तो हमारा निजी जीवन ही है। जिसमें किसी भी शपथ ,कसम या सौगंध को गंभीरता से नहीं लेने का बीज बोया जाता है।बात सौगंध से शुरू होती है और एक भी गंध से गंधायित होना भी हमारी संस्कारशाला में सिखाया नहीं जाता। इसी प्रकार हमारी पढ़ाई -लिखाई, उपदेश , संन्देश भी हमारे ग्रन्थों में लिखे रह जाते हैं। उपदेशकों की जीभ की खुजली मिटाने के साधन मात्र बने रह जाते हैं।
हमारा जन्मजात प्रशिक्षण ही ऐसा है कि सौगंध की सुगंध हमें प्रभावित ही नहीं कर पाती। शपथ का पथ सही तरह से मार्ग प्रशस्त नहीं कर पाता। वैसे भी हमारे यहाँ यह भी प्रचलित है कि ‘सौगंध तो झूठे लोग ही खाते हैं।” खाने वाले भी क्या करें वे कहते हैं कि हम क्या करें हम तो नहीं चाहते थे ,हमें तो जबरन खिलाई गई , इसलिए हमें खानी पड़ी। करना तो हमें वही है जो हम करते हैं , करते रहे हैं और करते रहेंगे । इसलिए यह सत्य है कि “सौगंध झूठे लोग ही खाते हैं।”
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’