अँधेरे में हैं ढूंढते रौशनी
जागने को तो जागे हुए हैं सभी
पर अँधेरे में हैं ढूंढते रौशनी
दर बदर खाते रहते हैं जो ठोकरें
वो वक्त देख करके संभाते नहीं
प्यार करता है कोई तो नफरत मिले
चाहा था जिसे वह मिला ही नहीं
देखने को तो सब खुश दिखाई दिए
पर हैं चिंतित सभी मुंह पे रौनक नहीं
यन्त्र की भांति लगता है सब चल रहे
किसको जाना कहाँ यह पता ही नहीं
सबके अंदर ही होता उजाला मगर
क्यों हैं बाहर सभी ढूंढते रौशनी
— डा केवलकृष्ण पाठक