और मुझे जीना है !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
कहाँ था तब, कहाँ हूँ अब
न सवाल सीधा न जवाब सीधा
शुरू करूँ कहाँ से विराम लगाऊं कहाँ
समय ने ही तो मुझे सींचा.
गाँव में जन्मा-पला, खेला-खाया
खेतों में काम किया फिर शहर में पढ़ा,
इंकलाब आया जोर-शोर से,
विलायत ने मुझे कुछ और गढ़ा.
धन भी मिला, मज़े भी किये,
शादी भी हुई, बच्चे और उन के भी बच्चे,
यही तो था सुखी संसार, जी भरकर हम जिए.
फिर से याद आया बचपन
संसार घूमने की चाहत पली,
खूब घूमे मज़े किए, गर्व था घर संसार पे ,
गर्व था अपने आप पे, हो भी क्यों न ,
चाहिए भी क्या था अब!
तूफ़ान नहीं चाहा था कभी, सोचा भी नहीं था,
मन में आया भी नहीं था,
लेकिन अपने वश में तो नहीं होता ना !
फिर एक पल सागर की लहरों से खेलना,
दूसरे पल (मुझे ) लहरों का दबोचना,
खेल खत्म ज़िंदगी का साफ़ दिखाई दिया,
लेकिन लहरों ने तरस किया मुझ पर,
फैंक दिया किनारे अधमरा-सा.
समझ नहीं पाया था कि यह ज़िंदगी ही थी,
या मेरा इम्तिहान था,
असाध्य रोग दे दिया था लहरों ने,
शारीरिक शक्ति खत्म हो गई, बोलना बंद हो गया,
डॉक्टर से भी जवाब, जीने के तीन साल मिल गए,
इस के बाद! उदासीनता, चुप-चुप
बस और नहीं ! अरे और नहीं क्या?
अरे यही तो, मुझे जीना है !!!,
बस, आज से ही व्यायाम शुरू,
दस मिनट, बीस मिनट, घंटा-दो घंटे
और अब पंद्रह साल,
जीवित हूं, जो भी हूं खुश हूं
और मुझे जीना है !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
बहुत सुंदर कविता ! आपके साहस को प्रणाम !!
बहुत बहुत धन्यवाद विजय भाई .
प्रिय गुरमैल भाई जी, आपकी कविताई को कोटिशः सलाम.
अब तक तो हमने गाना सुना था, ”ना-ना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे”
अब हम कहेंगे- ”ना-ना करते कविता आप लिख बैठे”
ना-ना करते दो मिनट में इतनी सुंदर कविता लिख दी, कि मन ने वाह-वाह कर दाद दी. पूरी आत्मकथा को इतनी छोटी कविता में समेटना आप जैसे महान साहित्यकार के ही बस की बात है. जहां भी यह कविता जाएगी, वाह-वाह की दाद पाएगी. बहुत-बहुत बधाइयां और शुभकामनाएं.
लीला बहन , जिंदगी बहुत कुछ सिखा देती है, अगर हम समझने की इच्छा रखते हों तो. यह बात तो सही है कि मेरा रोग असाध्य है लेकिन कुछ बेहतर होने के लिए कोशिश तो करनी ही होगी .सच कहता हूँ अगर ब्रेन सैल्ज़ की डीजैन्रेशन न हुई होती तो मैं चालीस वर्ष का महसूस करता . जितना मैं करता हूँ, अगर न करता तो आज यह सब लिख न रहा होता .