घड़ी
बेटे के बच्चों को शरारत करते देख हिमांशी को अपने कामयाब इंजीनियर बेटे के बचपन की याद आ रही थी.
8-9 का छोटा-सा बच्चा और बातें-शरारतें कितनी बड़ी-बड़ी!
सोए हुए कुते के कान में तिनका डालना और कुत्ते का भौंककर उस पर वार करना उसके लिए कौन बड़ी बात थी! घर आकर सीधे-सीधे बताता- ”मैंने सोए हुए कुते के कान में तिनका डाला, इसलिए कुत्ते ने मुझे काट खाया.” हिमांशी क्या करती! जल्दी से डिस्पेंसरी का कॉर्ड उठाकर भागी गई, मां जो ठहरी. उसे डांटने का होश कहां? फिर डांटे भी क्यों और कैसे? उसने ही तो सौरभ को सिखाया था- ”सच बोलने से डरना नहीं चाहिए.” अब डांटती है, तो आगे से सच बोलते उसे डरना ही पड़ेगा न!
उसकी नई-नई शरारतें चालू ही रहती थी, हां सौरभ को तो वे शरारतें लगती ही नहीं थी न!
”ममी एक बात कहूं?” एक दिन सौरभ ने निहोरा करते हुए कहा था.
”बोल बेटा.”
”ममी, मैं बड़ा होकर इंजीनियर बनना चाहता हूं.”
”मैं भी तो यही चाहती हूं न!”
”फिर यह होगा कैसे? उसके लिए तो बहुत-से प्रयोग करने पड़ेंगे.”
”तो!”
”मैं टेबिल क्लॉक को खोलकर देख लूं? वैसे ही वापिस बंद करके रख दूंगा, किसी को पता भी नहीं चलेगा?” सौरभ ने मासूमियत से कहा था.
”कर ले बेटा.”
घड़ी खुल तो गई थी, अब इतने छोटे-से बच्चे के लिए उसे वापिस बंद करना आसान तो नहीं था न! घड़ीसाज के पास तो अनुभव भी होता है और औजार भी, पता था क्या होना है, लेकिन बेटे के इंजीनियर बनने के सपने को पनपने से पहले ही बेमौत तो नहीं मारना था न! उस घड़ी को एक प्लास्टिक की थैली में कैद कर लिया गया था.
अब भी प्लास्टिक की थैली में कैद वह घड़ी जस-की-तस है, लेकिन आज भी सौरभ अपने कामयाब इंजीनियर होने का श्रेय उस घड़ी को ही देता है.
यकीन हो तो रास्ता निकलता है,
हवा की ओट लेकर भी चिराग जलता है.