तुम….
तुम! जो समझते हो अपने आपको
सबसे अधिक बेचारा।
तुम, जो व्याकुल हो कि
तुम्हे नही मिला,
रहने को,
एक लंबा आलीशान मकान।
क्या देखा है कभी?
छत विहीन मकान में रहने वाले,
धूल में- मिट्टी के बिस्तर
पर सोने वाले।
उस खुशहाल मजदूर को।
जिसने कभी भाग्य से
शिकायत नही की।
और जो,
‘तुम जैसों’ को समझता है
‘बड़ा आदमी’
क्या!
अब तुम बता सकते हो?
कि कौन है ‘बड़ा आदमी’!
तुम जो रोते हो कीमती वस्त्रों का रोना
देखा है कभी,
शीत और ताप सहकर,
पल – पल मरकर जीते हुये नन्हे
अबोध शिशुओं को।
महसूस की है कभी,
उस नारी की वेदना,
जो चन्द छिद्र युक्त वस्त्रों में,
बचाती छिपाती है खुद को।
तुम कभी मिले हो जीर्ण वस्त्रों में छिपे,
उस ‘भव्य’ व्यक्तित्व से,
जो प्रत्येक शाम ;
खेतों पर कड़ी मेहनत करके,
लौटता है अपने ‘खुशहाल’ को।
सोचो जरा……….
क्या अपने फटे वस्त्रों में भी ,
वो तुमसे कहीं अधिक…..
‘सुंदर’ और ‘आनंदित’ नहीं दिखता।
तुम! जो रोते हो पाँव के,
कीमती जूतों के लिये,
कभी महसूस किया है उनका दर्द,
जिन्हें पाँव ही नही मिले।
तुम जो दुनिया के हर
खूबसूरत पल को,
आँखो में समेट लेने की बजाय,
मूँद लेते हो आँखे……
उपेक्षा से,
उनसे सीख लो कुछ,
जो बिना आँखों के भी
हर खूबसूरती देखते है।
इसलिये-
सहेज कर रखो……
जो कुछ है तुम्हारे पास।
क्योंकि वही,
बहुतों के पास नही है।
और जान लो इस सत्य को,
कि जितना ज्यादा होगा तुम्हारे पास,
उतना ही ज्यादा खोने के भय से,
भयभीत रहोगे तुम।
और अगर-
तुम नही चाहते ज्यादा खोना,
तो क्यों चाहते हो ज्यादा पाना ।
अगर तुम्हे सुख चाहिये ज्यादा बड़ा।
तो दुख भी स्वीकारो ज्यादा बड़ा,
फिर दुख और सुख के साथ भेदभाव क्यों?
— अंजू अग्रवाल