गज़ल
दिल तेरी मुहब्बत का जो गुलाम नहीं होता
तेरा ज़िक्र लबों पर फिर सुबह शाम नहीं होता
बदनामी मेरी मुझको मशहूर न करती तो
गुमनाम ही रहता मैं, मेरा नाम नहीं होता
तू हाथ बढ़ा देता एक बार जो मेरी सिम्त
मेरा प्यार सरे-महफिल नीलाम नहीं होता
काश सीख लिए होते दुनिया के चलन मैंने
तो वफा का सर पे मेरे इल्ज़ाम नहीं होता
औरों की बुराइयों की बातें करते हैं वो
जिन्हें अपने ऐबों का इलहाम नहीं होता
— भरत मल्होत्रा