कविता
देख रही हूँ फिर से बदल रहे हो तुम
तोड़कर धारा से संबंध सारे आसमान में उड़ रहे हो तुम
देखो प्रलंभन से जरा दूर रहना तुम
अक्स तारों का क्यों फिर से ओढ़ रहे हो तुम
प्रेम की व्यथा पढ़ना मुश्किल काम है
क्यों समुद्र से जल छानने की कोशिश कर रहे हो तुम
प्रीत प्रेम प्यार का अपभ्रंश ही तो है
क्यों नेह की परिभाषा को जिस्म से तोल रहे हो तुम
आँसुओं की गागर पैमाना है निस्वार्थ प्रेम का
क्यों जिद से अपनी मेरी जिंदगी से खेल रहे हो तुम
— वर्षा वार्ष्णेय, अलीगढ़