लुप्त होने के कगार पर कठपुतली और ऊंट
‘बाबू मोशाय, हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है, कौन कब कहां उठेगा, कोई नहीं जानता।’ हिंदी फिल्म का यह संवाद जीवन का यथार्थ बयां करता है। दुनियादारी के रंगमंच पर थिरकती मानव रूपी कठपुतलियों की डोर कब, किस समय उठेगी यह कह पाना मुश्किल है। लेकिन मानव द्वारा निर्मित कठपुतलियां आज संकट के दौर से अवश्य गुजर रही हैं। वे कठपुतलियां जो हमारी संस्कृति का प्रतिबिंब कही जाती है। और लोककलाओं के प्रमुख रूप में हमारे मनोरंजन का साधन है। लेकिन आज तकनीकी विकास के बदलते दौर में दिल बहलाने के साधनों में अपार वृद्धि के कारण अब कठपुलती लोककला लुप्त होने के कगार पर है। यह लोककला लोक-शिक्षण, सामाजिक सरोकार, ऐतिहासिक घटना, प्रसंग और भाईचारे की संदेशवाहक होने के साथ ही लोगों में जागृति लाने का सशक्त माध्यम भी है। कठपुतली कला के द्वारा महिला शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, परिवार नियोजन जैसे सम-सामयिक विषयों पर आधारित कार्यक्रमों ने लोगों की गलत धारणाओं को बदलकर उन्हें सही दिशा एवं मार्गदर्शन देने का काम किया है। लेकिन कद्रदानों की कमी और सरकारी संरक्षण के अभाव में यह कला अब दम तोड़ रही है। पहले गांव-गांव में कठपुतली कला का खेल दिखाया जाता था, लेकिन अब उसके प्रति मोहभंग होने के कारण कठपुतली कलाकारों के जीविकोपार्जन का संकट गहराने लगा है। वस्तुत: कठपुतली कलाकार अपना पुश्तैनी धंधा छोड़कर अन्य कामकाज करने लगे हैं। इन कलाकारों के कुछ परिवार तो ऐसे हैं, जो अब यह खेल न दिखाकर सिर्फ कठपुतली बनाकर ही अपना गुजर बसर कर रहे हैं। कई कलाकारों को जीविकोपार्जन के लिए अपने गांव-कस्बों से पलायन करना पड़ रहा है। चूंकि इस कला को जीवित रखने वाले कलाकार मुख्य रूप से नट, भाट और जोगी समाज के दलित वर्ग के होने के कारण समाज में उन्हें वह सम्मान और प्रतिष्ठा हासिल नहीं हो पायी जिसके वे असल हकदार है।
भले ही देश में इस कला के चाहने वालों की तादाद लगातार घट रही है, लेकिन विदेशी लोगों में यह कला काफी लोकप्रिय हो रही है। आज यह कला चीन, रूस, रोमानिया, इंग्लैंड, चेकोस्लोवाकिया, अमेरिका, जापान जैसे प्रगतिशील देशों में भी पहुंच चुकी है। पर्यटक सजावटी चीजों, स्मृति और उपहार के रूप में कठपुतलियां भी यहां से ले जाते हैं, मगर इन बेची जाने वाली कठपुतलियों का फायदा बड़े-बड़े शोरूम के विक्रेता ही उठाते हैं। बिचौलिये भी माल को इधर से उधर करके चांदी कूट रहे हैं, जबकि इनको बनाने वाले कलाकर दो जून की रोटी को भी मोहताज हैं। वहीं समय के साथ इस कला के प्रदर्शन में भी काफी बदलाव आया है। अब यह खेल गली-कूचों व चौपालों पर न होकर फ्लड लाइट की रोशनी में बड़े-बड़े मंचों पर आयोजित किया जाने लगा है। गौरतलब है कि कठपुतली शब्द संस्कृत भाषा के ‘पुत्तलिका’ या ‘पुत्तिका’ और लैटिन के ‘प्यूपा’ से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है छोटी गुड़िया। सदियों पहले कठपुतली का जन्म भारत में हुआ था। कठपुतली के इतिहास के बारे में कहा जाता है कि ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में महाकवि पाणिनी के अष्टाध्यायी ग्रंथ में पुतला नाटक का उल्लेख मिलता है। उज्जैन नगरी के राजा विक्रमादित्य के सिंहासन में जड़ित 32 पुतलियों का उल्लेख सिंहासन बत्तीसी नामक कथा में भी मिलता है। शुरू में इनका इस्तेमाल प्राचीनकाल के राजा-महाराजाओं की कथाओं, धार्मिक, पौराणिक व्याख्यानों और राजनीतिक व्यंग्यों को प्रस्तुत करने के लिए किया जाता था। आमतौर पर इन कठपुतलियों का सिर लकड़ी या पेपरमेशी का होता है, उसी के हिसाब से उनका धड़ होता है। इनके हाथ-पैर लकड़ी के या कपड़े में रुई भरकर बनाए जाते हैं। इनके हर अंग से एक पतली तथा लंबी डोरी बंधी होती है, जिसका अंतिम सिरा पुतली चालक कलाकारों के हाथ की उंगलियों से बंधा होता है। अपनी उंगलियों के जादू से ही ये कलाकार इस डोर को हिलाकर कठपुतलियों को अपने इशारे पर नचाते हैं।
यह अत्यंत चिंताजनक है कि प्राचीन धरोहर और संस्कृति का अभिन्न अंग मानी जाने वाली कठपुतली कला का जादुई संसार सरकारी संरक्षण व प्रोत्साहन के अभाव में सिमटता जा रहा है। आज महानगरों में रहने वाले अधिकांश बच्चों व युवाओं को कठपुतली के खेल के बारे में जानकारी तक नहीं है। अभिभावकों के पास समय ही नहीं है कि वे बच्चों को अपने देश की सांस्कृतिक विरासत एवं ऐतिहासिक धरोहर व लोककलाओं से परिचित करवाएं। मोबाइल और कंप्यूटर से चिपके बच्चे भी अब संस्कृति, रीति-रिवाजों व त्योहारों में कोई विशेष रुचि लेना पसंद नहीं करते हैं। उनकी नवीन चीजों को जानने व समझने की प्रवृत्ति का इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से हर समय चिपके रहने के कारण दिन प्रतिदिन ह्रास होता जा रहा है। नि:संदेह कभी प्राचीन फिल्मों और दूरदर्शन के कई कार्यक्रमों का अहम किरदार रही कठपुतली कला का वजूद खत्म होता जा रहा है। सकारात्मक बात यह है कि इन विषम परिस्थितियों में भी कठपुतली कला को समर्पित कलाकारों ने उत्साह नहीं खोया है। भविष्य को लेकर इनकी आंखों में इंद्रधनुषी सपने सजे हैं। इन्हें उम्मीद है कि आज न सही तो कल लोककलाओं को समाज में इनकी खोयी हुई जगह फिर से मिल जाएगी और अपनी अतीत की विरासत को लेकर नई पीढ़ी अपनी जड़ों की ओर लौटेगी। सवाल है कि आज जब विदेशी पर्यटक हमारी लोककलाओं को देखने, जानने व समझने में विशेष रुचि दिखा रहे हैं तो हम आखिर क्यों अपनी कलाओं से मुंह मोड़ रहे हैं। अत: यह आवश्यक हो जाता है कि इस लुप्त होती कला के प्रति सरकार संजीदा होकर शीघ्र संरक्षण के लिए प्रयास करें एवं उचित कदम उठाए। स्कूलों और महाविद्यालय में यह खेल दिखाकर युवा पीढ़ी का ध्यान इस कला की ओर खींचा जा सकता है। गांव व कस्बों में धार्मिक आयोजन व मेलों के अवसर पर इस कला का मंचन सरकारी स्तर पर करवाकर भी इस कला के प्रति मोह उत्पन्न किया जा सकता है। अत: हम जितना जल्दी हो समझे कि किसी भी राष्ट्र की लोककला व संस्कृति ही उसकी आत्मा होती है। लोककला से ही लोकधर्मिता का भाव उत्पन्न होता है। जीवन ऊर्जा का महासागर है। जब अंतश्चेतना जागृत होती है तो ऊर्जा जीवन को कला के रूप में उभारती है। कला जीवन को सत्यम् शिवम् सुन्दरम् से समन्वित करती है। इसके द्वारा ही बुद्धि आत्मा का सत्य स्वरूप झलकता है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी कहा है कला में मनुष्य अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है। इसलिए इन्हें सहेजकर रखना बेहद जरूरी है।
संकट में रेगिस्तान का जहाज ऊंट
रेगिस्तान का जहाज कहे जाने वाले ऊंट की तादाद में तेजी से गिरावट आ रही है। देश में ऊंटों की घटती संख्या से कृषि और सुरक्षा पर संकट मंडराने लगा है। आलम यह है कि राजस्थान और गुजरात जैसे राज्य जहां पर कृषि और सामान की ढुलाई में सबसे ज्यादा काम आने वाले ऊंट अब कम हो रहे हैं, वहीं देश की सरहद की सुरक्षा में सीमा सुरक्षा बल के साथ कदमताल करने के लिए पर्याप्त ऊंट नहीं मिल रहे हैं। दरअसल राजस्थान में ऊंट केवल एक पशु नहीं बल्कि यहां की परंपरा और संस्कृति का हिस्सा माना जाता है। ढोला-मारू, पाबूजी, बाबा रामदेव, खिमवाजी और महेन्द्र-मूमल जैसे लोकगीत तो ऊंटों को आधार मानकर ही रचे गए हैं। राजस्थानी काव्य और पहेलियों में भी ऊंटों का अहम स्थान देखने को मिलता है। लेकिन राजस्थान की यह शान अब संकट में है। कहने को तो राजस्थान सरकार ने ऊंटों की तेजी से कम होती संख्या को देखते हुए 30 जून 2014 को ऊंट को राज्य पशु घोषित किया। वहीं हाल ही में एक कानून बनाकर ऊंट को मारने पर पांच साल तक की सजा का प्रावधान किया। लेकिन इसके बावजूद प्रदेश व देश में ऊंटों का कुनबा लगातार कम होता जा रहा है। ऊंट यानी रेगिस्तान का टाइटैनिक डूब रहा है। इसे बचाने के तमाम सरकारी उपाय नाकाफी साबित होते दिख रहे हैं।
पशु संसाधन की गणना करने वाली 20वीं राष्ट्रीय पशुधन गणना नामक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, राजस्थान में ऊंटों की संख्या पिछले सात सालों में लगभग 35 फीसदी कम हुई है। वर्ष 2012 में जहां राजस्थान में 3.26 लाख ऊंट थे, जो वर्ष 2019 में घटकर 2.13 लाख हो गए हैं। वहीं गुजरात में ऊंटों की संख्या 30 हजार से घटकर 28 हजार, उत्तर प्रदेश में 8 हजार से घटकर 2 हजार, हरियाणा में 19 हजार से घटकर 5 हजार हो गई है। देश के करीब 82 फीसदी ऊंट राजस्थान में पाए जाते हैं। साल 1961 में राजस्थान में ऊंटों की संख्या करीब 10 लाख थी। साल 1991 तक राजस्थान में ऊंटों की संख्या 8-10 लाख के बीच रही। इसके बाद ऊंटों की संख्या में गिरावट का दौर शुरू हो गया। साल 2003 में ऊंटों की संख्या घटकर 4 लाख 98 हजार रह गई। साल 2007 में प्रदेश में ऊंटों का कुनबा घटकर 4 लाख 22 हजार रह गया। गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक बीएसएफ को 1276 ऊंटों की जरूरत है लेकिन उसके पास केवल 531 ऊंट ही हैं। ऊंट संख्या में विश्व में कभी तीसरे स्थान पर रहने वाला भारत आज नौवें स्थान पर आ गया है। पशु वैज्ञानिकों ने चिंता जाहिर की है कि अगर ऊंटों की संख्या बढ़ाने का कोई कारगर उपाय नहीं किया गया तो यह देश में विलुप्त हो जाएंगे।
देश में ऊंटों के संवर्द्धन और संरक्षण के लिए राजस्थान के बीकानेर में वर्ष 1984 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की तरफ से स्थापित राष्ट्रीय ऊंट अनुसंधान केन्द्र की रिपोर्ट के अनुसार, ऊंट की संख्या में कमी का मुख्य कारण चरागाहों की कमी, प्रजनन की कमी, युवाओं की ऊंट पालन से विमुखता, चारे की अनुपलब्धता और महंगाई भी है। वहीं ऊंटों की घटती संख्या के लिए ऊंटों का अवैध रूप से वध भी जिम्मेदार है। ऊंटों की कम होती संख्या के लिए रूढ़िवादिता भी एक कारण है। ऊंट पालने वाले राइका समाज में ऐसी मान्यता है कि ऊंटनी का दूध बेचना नहीं चाहिए। ऐसी मान्यता के कारण ऊंट के दूध का व्यापार नहीं बढ़ पा रहा है। पिछले कुछ वर्षों में ऊंट के मांस की मांग बढ़ने के कारण इनकी निर्मम हत्या की जाने लगी है। राजस्थान के कई जिलों में बलिदान के रूप में भी ऊंट मारा जा रहा है। नतीजतन, राजस्थान में ऊंटों की संख्या तेजी से घट गई है। राजस्थान में ऊंटों की घटती संख्या के पीछे एक बड़ी वजह यह भी है कि पशुपालक अब ऊंटनी को गर्भवती ही नहीं होने देते। दरअसल ऊंटनी का करीब 13 महीने का गर्भकाल होता है। इस दौरान उसे करीब 4 महीने पूरी तरह आराम की जरूरत होती है। चूंकि इस दौरान पशुपालक को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। लिहाजा वह उसके गर्भवती होने से परहेज करता है। वहीं दैनिक जीवन में ऊंटों की उपयोगिता अब बहुत कम रह गई है। कृषि और यातायात के क्षेत्र में हुए मशीनीकरण ने ऊंट को हाशिए पर धकेल दिया है। राजस्थान से होने वाली ऊंटों की तस्करी भी इनकी संख्या कम होने के पीछे एक प्रमुख कारण है। तस्करी का यह जाल राजस्थान के थार रेगिस्तान से शुरू होकर उत्तर प्रदेश से बांग्लादेश होता हुआ खाड़ी देशों तक फैला हुआ है। ऊंट का मांस, उसकी हड्डियां, खाल और बाल तक की मांग रहती है।
ऊंटों की संख्या में आई इस तेज गिरावट को देखते हुए यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या एक दिन भारत से ऊंट समाप्त हो जाएंगे? हालांकि, राजस्थान सरकार ने ऊंटों की संख्या को बढ़ाने के लिए ऊंट विकास योजना की शुरूआत की है। इसके अंतर्गत हर ऊंटनी के प्रसव पर ऊंट पालक को 10 हजार रुपए की अनुदान राशि दी जाती है। लेकिन केवल इस योजना से ऊंटों की संख्या में कमी को रोक पाना संभव नहीं है। हमें समझना होगा कि एक पशु के रूप में ऊंट राजस्थान के कई लोगों को आजीविका प्रदान करता है। इसका दूध कई बीमारियों के उपचार में काम आता है। अत: ऊंटों का बचाव अत्यंत जरूरी है। सरकार को ऊंट को एक डेयरी पशु के रूप में विकसित करते हुए इसके लिए उन्नत चरागाहों के विकास पर भी काम करना चाहिए। ऊंट के प्रजनन में वैज्ञानिक विधियों का इस्तेमाल होना चाहिए। जिसमें टेस्ट ट्यूब तकनीक के जरिए ऊंटों की संख्या बढ़ाने के उपाय किये जा सकते हैं। कृषि के कामों में ऊंट को पर्यावरण मित्र के तौर पर प्रचारित करने के साथ ही कृषि कामों में ट्रैक्टर और मशीन की जगह ऊंटों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। क्योंकि ट्रैक्टर और मशीन से खेत में फसल और पौधों के लिए लाभकारी जीव-जंतु मर जाते हैं। साथ ही ऊंटों की बलि, हत्या व तस्करी को लेकर सुदृढ़ निगरानी तंत्र एवं टीम की तैनाती आवश्यक है।
— देवेन्द्रराज सुथार