साहित्य बनाम प्रसिद्धि
विचारों के अंतर्द्वंद से फूटता है;
भावनाओं का ज्वालामुखी।
निकलता है शब्दों का गर्म लावा;
बिखर जाता है कागज के धरातल पर स्याही की तरह
और जन्म लेती है……
एक कविता ,कहानी या गज़ल।।
—— कल्पना
सृष्टि में व्याप्त समस्त प्राणियों में केवल मनुष्य ही ऐसा जीव है जिसके पास अपनी अनुभूतियों, भावों एवं विचारों को लिपिबद्ध रूप से व्यक्त करने की कला पाई जाती है। इसी कला को हम साहित्य के नाम से जानते हैं। व्यक्ति अपने उमड़ते मनोभावों को साहित्य की विभिन्न विधाओं यथा कविता, कहानी, उपन्यास ,व्यंग्य ,नाटक ,आत्मकथा आदि के रूप में उद्धृत करता है। इसके लिए वह सार्थक शब्द रूपी मोतियों को वाक्य रूपी धागे में पिरो कर गद्य या पद्य के रूप में सद विचारों की माला तैयार करता है। इस कृत्य से जहां एक और उसे आत्म संतुष्टि और आनंद की अनुभूति होती है वहीं दूसरी ओर वह वर्तमान स्थिति ,पनपती बुराइयों, विकारों, नैतिक अवमूल्यन एवं विभिन्न परिवर्तनों (चाहे वह सकारात्मक या नकारात्मक) को अपनी लेखनी के माध्यम से समाज के समक्ष प्रस्तुत करता है। अच्छा साहित्यकार एक साधक की भांति साहित्य की साधना करता है और समाज की वास्तविक स्थिति का प्रत्यक्षीकरण करता है।
कलम हाथ में लेते ही या यूं कहें कि लेखन का भाव मन में आते ही रचनाकार के कंधों पर अप्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायित्व आ जाता है ।उत्कृष्ट लेखनी द्वारा समाज में वैचारिक क्रांति लाने का दायित्व। इतिहास गवाह है कि तलवार के साथ -साथ कलम ने भी क्रांति लाने में महती भूमिका निभाई है। सामाजिक जागरूकता लाने के लिए साहित्य एक सशक्त माध्यम है ।साहित्य की विभिन्न विधाओं में अनेकों कवियों एवं लेखकों ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है ।यह प्रक्रिया आज भी बदस्तूर ज़ारी है।पाठकों ने भी उनकी लेखनी को खुले दिल से स्वीकारा और यथोचित प्रसिद्धि तथा मान सम्मान भी प्रदान किया ,जो निश्चित ही साहित्य साधकों की अथक साधना का प्रतिफल है।
साहित्यकारों को सम्मानित और ख्याति लब्ध होते देखकर वर्तमान में कवियों और लेखकों की बाढ़ सी आ गई है ।लोगों में रचनाकार बनकर छपने की होड़ सी लगी है जिससे वे रातों-रात प्रसिद्धि पा सकें। आम धारणा से बन गई है कि जितनी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में या किताबों के रूप में प्रकाशित होंगी उतनी जल्दी प्रसिद्धि मिल जाएगी ।इसके लिए साहित्य का मर्म समझे बिना ही लोग कुछ भी लिख रहे हैं ।मौलिक चिंतन का नितांत अभाव है और हृदय मुक्ति की साधना भी लुप्त प्राय है। रस, छंद ,अलंकार ,व्याकरण सब गौण हो गए हैं। यह समझा जाने लगा है कि चटपटे अंदाज और ओजपूर्ण भाषा( जिसमें कुछ अशोभनीय शब्दों का भी समावेश हो )का लेखन ही साहित्य है। यथार्थवाद और बुराइयों का नग्न चित्र खींचने को कला की कसौटी समझने लगे हैं। जिस प्रकार इलाज के दो, चार नुस्खे सीखकर कुछ लोग स्वयं को हकीम समझने लगते हैं उसी प्रकार शब्दों के चंद समूह से परिचित लोग खुद को रचनाकार मानने लगते हैं। जिस प्रकार झोला छाप हकीमों से मरीज की जान जाने का खतरा उत्पन्न होता है उसी प्रकार अध कचरा ज्ञान रखने वाले ऐसे साहित्यकार साहित्य की गरिमा को धूमिल करने में लगे हुए हैं। कुकुरमुत्ता की तरह पनपते प्रकाशक एवं तथाकथित साहित्यकार साहित्य जगत को प्रदूषित कर रहे हैं ।स्वयं को छपवाने का रोग संक्रामक रोग और महामारी की तरह फैल रहा है ।येन केन प्रकारेण शब्द जाल बुनकर शॉर्टकट प्रसिद्धि पा लेने को लालायित साहित्यकारों के पास साहित्य रचना की तैयारी के लिए समय ही नहीं है।
साहित्य जगत के चिंतनीय “छपाक रोग” से ग्रसित नए नवेले साहित्यकार यह समझ पाने में असफल है कि कोई भी लेखक अपनी रचना की गहराई और गुणवत्ता के बल पर ही पाठकों का दिल जीत सकता है ।यह ऐसा मुकाम है जिसे लेखन कला के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । गहन साधना ही प्रसिद्धि का एकमात्र उपाय है ।जो युवक साहित्य को अपने जीवन का लक्ष्य बनाना चाहते हैं, उन्हें यह समझना होगा कि वह स्वयं को एक महान पद के लिए तैयार कर रहे हैं जिसके लिए उन्हें संयम रखना होगा ।छपने की तीव्र लालसा का त्याग कर तपस्वी बनकर साधना करनी होगी । इसी के माध्यम से वे सही मायनों में साहित्य के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त कर सकते हैं।
— कल्पना सिंह