धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

वेद दो पाये पशु को मनुष्य बनाने के साथ उसे ईश्वर से मिलाते हैं

ओ३म्

संसार में जीवात्माओं को परमात्मा की कृपा से अपने-अपने कर्मानुसार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म प्राप्त होता रहता है। सभी योनियों में मनुष्य योनि सबसे श्रेष्ठ एवं महत्वपूर्ण है। मनुष्येतर योनियों में आत्मा की ज्ञान आदि की उन्नति नहीं होती। मनुष्येतर योनियों में भोजन एवं जीवन व्यतीत करने के लिये स्वाभाविक ज्ञान होता है। वह मनुष्यों की तरह किसी आचार्य अपने माता-पिता से सीख कर ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। मनुष्य अपना ज्ञान बढ़ाने के साथ ईश्वर, जीवात्मा एवं सृष्टि के अनेक रहस्यों को जानकर अपने जीवन को आत्मज्ञान, ईश्वरोपासना, धन-सम्पत्ति सहित भौतिक साधनों से सुखी व सन्तुष्ट रख सकते हैं। परमात्मा ने इस सृष्टि को नाशवान बनाया है। मनुष्य का शरीर भी नाशवान है। सभी मनुष्यों प्राणियों की मृत्यु अवश्य होती है। सभी मनुष्यों को रोग आदि अवस्थाओं में अपनी मृत्यु की चिन्ता सताती रहती है। महात्मा बुद्ध और ऋषि दयानन्द को भी भविष्य में आने वाली वृद्धावस्था तथा मृत्यु के दुःख ने पीड़ित किया था। इन महापुरुषों ने जीवन में ज्ञान प्राप्ति की और एक महात्मा, तपस्वी तथा उपदेशक का जो कार्य किया उसका कारण कुछ सीमा तक उनको अपनी वृद्धावस्था एवं मृत्यु के दुःख का आभाष होना था। ऋषि दयानन्द ने अपनी बहिन और चाचा की मृत्यु को देखकर मृत्यु पर विजय पाने व उसकी ओषधि की खोज में ही अपनी आयु के बाईसवें वर्ष में गृह त्याग कर एक विरक्त जिज्ञासु एवं साधक के रूप में देश के अनेक भागों में जाकर विद्वानों, ज्ञानियों व साधकों की संगति की थी जिसका परिणाम हमारे सामने हैं। इसी के परिणामस्वरूप वह बालक मूलशंकर से ऋषि व महर्षि के उच्च पद पर पहुंचे थे जहां पर महाभारत काल के बाद कोई विद्वान व महापुरुष नहीं पहुंचा और भविष्य में उनका स्थान ले पाने की किसी मनुष्य से कोई आशा नहीं है।

महर्षि दयानन्द एक साधारण मनुष्य से महा ऋषि के पद को प्राप्त हुए। इसका कारण उनका एक सफल योगी एवं वेदों का मर्मज्ञ विद्वान होना है। ऋषि दयानन्द ने अपने समय में वेदोपदेश देकर देश को झकझोरा था। उन्होंने अन्धविश्वासों, पाखण्डों, अविद्या तथा स्वार्थ पूर्ण कार्यों का खण्डन करने के साथ वेदों के महत्व का प्रतिपादन भी किया था। वेद और वेदों से सम्बन्धित उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, ऋषि दयानन्द कृत वेदभाष्य, बाल्मीक रामायण, महर्षि व्यास रचित महाभारत आदि ग्रन्थ आज भी महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक हैं और सृष्टि के अन्त प्रलय काल तक महत्वपूर्ण व प्रासंगिक रहेंगे। वेदाध्ययन कर मनुष्य अपने अज्ञान को दूर करने के साथ ईश्वर व आत्मा को जानकर एवं वेदविहित सद्कर्मों को प्राप्त होकर योगविधि से ईश्वर का साक्षात्कार करने, मोक्ष व आत्मा की उत्तम गति को प्राप्त होते रहेंगे। वेदों के ज्ञान के समान महत्वपूर्ण संसार में कोई पुस्तक व ज्ञान नहीं है। यही वेदों का वेदत्व व महत्व है। वेदों को सर्वांगरूप में अपनाने से मनुष्य के जीवन का कल्याण होता है। वेद सत्य ज्ञान का पर्याय है जबकि संसार के अन्य सभी ग्रन्थ वेदों के अनुकूल होने पर ही प्रामाणिक होते हैं और उनमें उन ग्रन्थों के रचयिताओं की अल्पज्ञता के कारण जो अविद्या उनमें होती है वह त्याज्य कोटि की होती है। इस अविद्यायुक्त बातों को छोड़ने से ही मनुष्य मनुष्य व विवेकवान बन सकता है। अतः वेदाध्ययन कर हम अपने जीवन व जन्म को सार्थक कर सकते हैं एवं जीवन के उद्देश्य को पूर्ण कर आत्मा की उन्नति व मोक्ष के मार्ग पर आगे बढ़कर उसको प्राप्त भी कर सकते हैं।

वेद और संसार के अन्य सभी सम्प्रदायों मतों के ग्रन्थों में मुख्य अन्तर यह है कि वेद सृष्टि बनाने चलाने वाले परमात्मा का अपना स्वाभाविक विवेकपूर्ण ज्ञान है जो उसने सृष्टि के आरम्भ में दिया था। परमात्मा सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान तथा सृष्टिकर्ता है। इस कारण परमात्मा के ज्ञान में कहीं किसी न्यूनता त्रुटि होने की सम्भावना नहीं है। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में सम्पूर्ण वेदों के सभी मन्त्रों की परीक्षा कर भी सम्पूर्ण वेद को सत्य पाया था। ऋषि दयानन्द सच्चे योगी थे। उन्होंने योग की अन्तिम सीढ़ी समाधि को प्राप्त कर ईश्वर का साक्षात्कार वा प्रत्यक्ष भी किया था। उनकी बुद्धि साधरण बुद्धि न होकर ऋतम्भरा बुद्धि थी जो सत्यासत्य का विवेक करने में समर्थ थी। इसी कारण उन्होंने अपनी विद्या से वेदों का भाष्य भी किया और वैदिक मान्यताओं के आधार पर वेद प्रमाणों से युक्त सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों की रचना की। वेदों में जो ज्ञान है वह सत्य एवं यथार्थ होने से संसार के सभी मनुष्यों के लिये उपादेय एवं स्वीकार्य है। वेद अविद्या से मुक्त ज्ञान के ग्रन्थ हैं। ऋषि दयानन्द ने उसे परम्परानुसार सब सत्य विद्याओं का पुस्तक स्वीकार किया और वेदों को ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ की रचना एवं वेदभाष्य करके प्रमाणित भी किया है। वेदाध्ययन कर मनुष्य की आत्मा ज्ञान विज्ञान से प्रकाशित होती है और वह मनुष्य जीवन को भौतिक सुखों की प्राप्ति तक सीमित न रखकर उसे योग मार्ग, आध्यात्मिक मार्ग तथा परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर करती है।

वेदाध्ययन ईश्वर की अष्टांग योग विधि से उपासना करने पर ही मनुष्य का जीवन उसकी आत्मा का पूर्ण विकास सम्भव है। वेद ज्ञान से रहित मनुष्य जीवन के वास्तविक रहस्य को समझने में सर्वथा असमर्थ रहते हैं। देश व विश्व के मनुष्य पूर्व काल के मनुष्यों द्वारा रचित ग्रन्थों से ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं जहां ज्ञान व अज्ञान दोनों आपस में मिले होते हैं। उन ग्रन्थों से सत्य ज्ञान को ग्रहण करना व असत्य का त्याग करना उनके वश की बात नहीं होती। जो मनुष्य किसी भी ग्रन्थ में अन्ध-श्रद्धा रखते हैं और उसे ही अपना सब कुछ स्वीकार करते हैं वह अपने जीवन में ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर सकते। केवल मात्र साधना व उपासना से ईश्वर के निकट पहुंच भी जायें तो भी वह बिना वेद व शास्त्रों को पढ़े शास्त्रीय ज्ञान से युक्त नहीं हो सकते। अतः वेद मनुष्य को ज्ञानी मनुष्य सच्चा विद्वान बनाते हैं जो ईश्वर सहित सभी पदार्थों का ज्ञान प्राप्त कर सच्चे चरित्रवान, निर्लोभी, ज्ञानवान, योगी, देशभक्त, समाज सुधारक, परोपकारी, सेवाभावी, निस्वार्थ सेवक सहित दया करूणा से युक्त हृदय वाले मानव होते हैं। आश्चर्य होता है कि परमात्मा से प्राप्त मनुष्यों के लिये कल्याण प्रद वेदज्ञान की पूरे विश्व में उपेक्षा क्यों हो रही है? इसका कारण भी संसार के लोगों का वेदों के प्रति अज्ञान व विवेक बुद्धि का न होना है। यदि उनकी बुद्धि पवित्र होती तो वह सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित वेद व वेदभाष्य पढ़कर वेदों के प्रति अवश्य न्याय करते।

मनुष्य दो पैरों वाला प्राणी है। इसे दो पाया भी कहते हैं। मनुष्य दो पैरों से सीधा खड़ा होता है चलता है। अन्य प्राणियों से तुलना करने पर मनुष्य की यह विशेषता प्रत्यक्ष सिद्ध होती है। जो मनुष्य विद्या प्राप्त नहीं करते वह पशुओं के समान ही होते हैं। आहार, निद्रा मैथुन मनुष्य पशुओं में समान होते हैं। केवल विद्यायुक्त धर्म का पालन ही मनुष्य पशुओं में भेद करता है। आजकल विद्यायुक्त धर्म का कोई पालन करता हुआ दीखता है तो वह वेदों का अध्ययन करने वाले आर्यसमाज के विद्वान, सदस्य व वैदिक ग्रन्थों के कुछ पाठक ही होते हैं। शेष मनुष्य वेद विद्या से शून्य होने के साथ अन्धविश्वासों व अज्ञान सहित अनेक प्रकार के आडम्बरों व अपने मत की सत्यासत्य बातों के प्रचार में लगे व फंसे हुए हैं। वह जब तक वेद व वेदानुकूल ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन नहीं करेंगे, अविद्या से मुक्त नहीं हो सकते। जो लोग आर्यसमाज से जुड़ कर उसके वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन व आचरण करते हैं वह वस्तुतः भाग्यशाली हैं। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में एक महत्वपूर्ण बात लिखी है। उनके शब्दों को प्रस्तुत कर हम इस लेख को समाप्त करेंगे। वह लिखते हैं मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है।’ इसी क्रम में वह यह भी कहते हैं कि सत्यापदेश के बिना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है। ऋषि दयानन्द की यह बात अक्षरक्षः सत्य है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य