सुख की वर्षा
बात लगभग 50 साल पहले की है। मैं छोटी-सी बच्ची थी। मेरी एक सहेली ने हारमोनियम सीखने का मन बनाया। उसने मुझसे भी हारमोनियम सीखने में साथ देने का आग्रह किया। सिखाने वाली एक बुज़ुर्ग अध्यापिका थीं, जिनका नाम था श्रीमती सुखवर्षा। उन्होंने मेरी सहेली को कहा था कि वे एक महीने की फीस 10 रुपये लेंगी , लेकिन कम-से-कम छह-सात सीखने वाले तो होने ही चाहिए। शैशव से ही संगीत की रसिया होने के कारण मैं तुरंत मान गई और अन्य सखियों को भी तैयार कर लिया। मेरे बाबूजी ने मुझे हारमोनियम भी ला दिया। हम सीखने लगे। मेरी सखी गुरुवाणी सीखना चाहती थी , इसलिए हमें रोज़ एक शबद बजाना सिखाया जाता था। प्रभु की कुछ ऐसी कृपा थी कि मुझे रोज़ एक शबद पक्का हो जाता था जब कि बाकी सबको एक-एक शबद में तीन-चार दिन लग जाते थे। घर में भजनों का वातावरण होने के कारण मुझे बहुत सारे भजन याद थे। वहां सीखे एक शबद से मेरी तृप्ति नहीं होती थी, सो मैं हारमोनियम पर उलटे-सीधे हाथ चलाकर भजन की धुन निकालने की कोशिश करने लगी और मुझे कुछ-कुछ कामयाबी भी मिलने लगी। दस दिनों में मैंने दस शबद सीख लिए और कुछ भजन भी तैयार हो गए। इसका नतीजा यह हुआ कि मुझमें और मेरी सहेलियों की संगीत-शिक्षा में पर्याप्त अंतर हो गया था। कुछ मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा था और कुछ अध्यापिका जी को भी परेशानी आ रही थी , सो उन्होंने चार रुपये लेकर मुझे संगीत-शिक्षा की पकड़ से मुक्त कर दिया। मैंने अपना रियाज़ जारी रखा और काफी कुछ हासिल भी कर लिया। धीरे-धीरे अभ्यास छूटता गया, लेकिन जब कभी भी घर में या स्कूल में हारमोनियम मेरे सामने आता, मैं मौके का लाभ उठाकर प्रैक्टिस करती रही। मुझे हारमोनियम बजाते देखकर सखियां-सहेलियां भी सिखाने का आग्रह करतीं। मुझे भला क्या ऐतराज़ हो सकता था! उन्हें सिखाते-सिखाते मेरी और भी प्रैक्टिस होती रही। विवाह के पश्चात् अपने बच्चों को भी जितना सिखा सकती थी सिखाया। भजन गाने का तो मौका मिल जाता था पर, शबद गाने का कभी अवसर नहीं मिला।
लगभग तीन साल पहले मेरी एक सखी ने अपने घर सुखमनी साहिब के पाठ पर आने के लिए आमंत्रित किया। वहां पाठ के बाद कुछ शबद भी होने थे। मैंने सहर्ष निमंत्रण स्वीकार करने के साथ ही उससे शबद गाने के विशेष नियमों के बारे में भी कुछ-कुछ जानकारी ले ली। अपने पोते का कैसियो निकालकर मैंने दो-तीन शबद अच्छी तरह पक्के कर लिए। वहां गाने वाले काफी लोग आये हुए थे, फिर भी मुझे एक शबद गाने का अवसर दिया गया। मैंने प्रभु का नाम लेकर शबद गाया। मेरी सखी ने मेरे कान में एक मंत्र दिया कि हारमोनियम भले ही आगे-पीछे हो जाए, शबद चलते रहना चाहिए। प्रभु की कृपा से शबद और हारमोनियम का बड़ा सुंदर तालमेल रहा। बाद में जब मैंने बताया कि यह शबद मैंने पचास वर्ष पहले सीखा था पर, पर इस तरह गुरबाणी में गाने का अवसर पहली बार मिला है तो सबका यह कहना था कि हमें तो आनंद आ गया। मैंने मन-ही-मन अपनी हारमोनियम- अध्यापिका श्रीमती सुखवर्षा जी को याद भी किया और नमन भी, जिनके कारण यह सुख की वर्षा हो रही थी। उसके बाद तो भजन और शबद गाने-बजाने का सिलसिला बराबर चलता रहा। कीर्त्तन या स्टेज पर जब कभी हारमोनियम की तारीफ होती है, तो मैं हारमोनियम-अध्यापिका श्रीमती सुखवर्षा जी को नमन करना नहीं भूलती हूं।
यह संस्मरण उस समय लिखा गया था, जब यह सुख की वर्षा हुई थी. इस सुख की वर्षा को लगभग 15 साल हो गए हैं. पंजाबी लिपि गुरुमुखी भी उन्हीं दिनों सीखने का सौभाग्य मिला. आजकल फेसबुक पर गुरमैल भाई जी की आत्मकथा पंजाबी में प्रकाशित हो रही है, कामेंट्स भी पंजाबी भाषा में ही आ रहे हैं, उन्हें पढ़कर मन गर्व से गर्वित हो जाता है, कि हम गुरमैल भाई जी की पूरी आत्मकथा से रू-ब-रू हो सके हैं.