अहिल्या की पीड़ा
जैसे तैसे जल रहे हैं अब तलक हमसे दिये
यातनाओं के शिविर में कब तलक कोई जिये
था अहम मुनि का कि वो दुर्भावना थी इंद्र की
हम जिसे पत्थर बने सदियों यूं ही भोगा किये
प्यास बढ़ती जा रही है द्रोपदी के चीर सी
उम्र का प्याला है खाली आदमी कैसे पिये
टुकड़ा टुकड़ा भावनाओं की हुई है धज्जियां
किस तरह इन चीथडो से अब कोई दामन सिये
हैं बहुत से लोग मुझ जैसे जमाने में यहां
सोचते हैं क्यों जिए हम बेसबब अपने लिये
— मनोज श्रीवास्तव, लखनऊ