“उत्तर–पूर्व भारत का इतिहास” – पूर्वोत्तर का सम्पूर्ण इतिहास दर्शन (पुस्तक समीक्षा)
भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र बांग्लादेश, भूटान, चीन, म्यांमार और तिब्बत – पाँच देशों की अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर अवस्थित है। असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा और सिक्किम – इन आठ राज्यों से बना समूह पूर्वोत्तर क्षेत्र भौगोलिक, पौराणिक, ऐतिहासिक एवं सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र में लगभग 400 समुदायों के लोग रहते हैं और लगभग 220 भाषाएँ बोलते हैं। संस्कृति, भाषा, परंपरा, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार, वेश-भूषा आदि की दृष्टि से यह क्षेत्र इतना वैविध्यपूर्ण है कि इस क्षेत्र को भारत की सांस्कृतिक प्रयोगशाला कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा लेकिन दुर्भाग्यवश पूर्वोत्तर के इतिहास और सामाजिक जीवन से हिंदी का जनमानस अपरिचित है I इसका प्रमुख कारण हिंदी में पूर्वोत्तर क्षेत्र के इतिहास, समाज, साहित्य, संस्कृति और लोकजीवन पर आधारित प्रामाणिक पुस्तकों का अभाव है। श्री राजेश वर्मा ने अपनी पुस्तक “उत्तर – पूर्व भारत का इतिहास” के द्वारा इस अभाव को दूर किया है I उन्होंने अपनी पुस्तक में रेखांकित किया है कि पूर्वोत्तर में 1824 – 1826 के प्रथम आंग्ल – बर्मी युद्ध से आधुनिक इतिहास का प्रारंभ हुआ I पुस्तक में अहोम काल की कुछ प्रमुख घटनाओं एवं उसके उत्थान – पतन का विवरण दिया गया है I गदाधर सिंहा की मृत्यु के बाद उनका पुत्र रूद्र सिंहा 1696 में अहोम राजा बना I उसने अहोम साम्राज्य की शक्ति को चरम पर पहुंचा दिया लेकिन 1769 में सिंहासन पर बैठनेवाला उसका पुत्र लक्ष्मी सिंहा एक कमजोर और मंत्रियों के वशीभूत रहनेवाला अदूरदर्शी राजा था I उसने अहोम राजवंश की प्रतिष्ठा मिटटी में मिला दी I अगला अहोम राजा गौरीनाथ सिंहा (1780 – 1795) अहोम राजाओं में सबसे अक्षम, चरित्रहीन, दुष्ट और कायर था I उसने अहोम साम्राज्य के पतन का मार्ग प्रशस्त कर दिया I पुस्तक में असम एवं अन्य पर्वतीय क्षेत्रों में ब्रिटिश शासन के प्रारंभ होने की प्रक्रिया की विवेचना की गई है I ब्रिटिश सरकार की सीमांत नीतियों, उत्तर – पूर्व में राष्ट्रवाद, स्वतंत्रता आन्दोलन में उत्तर – पूर्व की भागीदारी एवं स्वतंत्रता के बाद होनेवाले परिवर्तनों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है I ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से पूर्वोत्तर क्षेत्र भी अछूता नहीं था I इतिहासकार ने अपनी पुस्तक में 1829 के खासी विद्रोह, 1839 के खाम्ती विद्रोह, 1843 के सिंहफ़ो विद्रोह, 1857 के विद्रोह, कृषक विद्रोह, असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन (1930 – 1934) आदि पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है तथा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपनी आहुति देनेवाले सेनानियों का गौरव गान किया है I श्री वर्मा ने पुस्तक के अंतिम अध्याय में स्वतंत्रता के बाद उत्तर – पूर्वी राज्यों के पुनर्गठन की विवेचना की है I अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा राज्यों के गठन एवं सिक्किम के भारत में विलय संबंधी ऐतिहासिक तथ्यों के साथ –साथ पूर्वोत्तर में आए बदलावों का भी विवेचन किया गया है I पुस्तक को आठ खंडों में विभक्त किया गया है: 1.प्रस्तावना 2.अहोम वंश का शासन काल – उत्थान एवं पतन 3.उत्तर – पूर्व में यूरोपियनों का आगमन 4.प्रथम आंग्ल – बर्मी युद्ध 5.उत्तर – पूर्वी राज्यों का अधिग्रहण एवं प्रशासन 6.उत्तर – पूर्व ब्रिटिश सीमांत नीति 7.उत्तर – पूर्व में स्वतंत्रता संग्राम 8.उत्तर – पूर्व : स्वतंत्रता के पश्चात I यह पुस्तक छात्रों, अध्यापकों, शोधकर्ताओं और पूर्वोत्तर भारत में रुचि रखनेवाले सामान्य पाठकों के लिए अत्यंत उपादेय है I इतना विस्तृत, अनुसंधानपरक और प्रामाणिक इतिहास लेखन के लिए श्री वर्मा वास्तव में साधुवाद के अधिकारी हैं I
पुस्तक का नाम : उत्तर – पूर्व भारत का इतिहास
लेखक : राजेश वर्मा
पृष्ठ : 248, मूल्य : 800/-
प्रकाशक : मित्तल पब्लिकेशन, 459/9, दरियागंज, नई दिल्ली – 110002
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