कविता
मेरी अंतरात्मा में यह कैसी खनक है यह कौन है मेरे दिल में
जिसके ना आने की भनक है ।
कैसे हुआ प्रविष्ट!
किस द्वार से?
कब?
पर द्वार तो सब बंद किए थे मैंने स्वयं भावनाओं के ..
और ओढी थी चादर
निष्ठुरता की
फिर कैसी है कोमल जलधारा!
निकलती हुई..
निष्ठुर कठोर पर्वत से मानो
कैसे संभव हो सका ये,
जो था असंभव!
क्या समाप्त हो चुकी है?
अपने आप को धोखा
देने की सदी..
क्या कोई नई ऋतु है ये?
क्या वो ऋतु
जब ह्रदयों पर अवलंबन
समाप्त हो जाता है स्वयं का..
जब तोड़कर अपनी सीमाएं मिल जाती हैं नदियाँ
सागर में।।
— अंजू अग्रवाल