गज़ल
समझौता कदम कदम पर करना पड़ा मुझे
जीने की आरज़ू में रोज़ मरना पड़ा मुझे
अपनी थी बात जब तलक डरता नहीं था मैं
अपनों की जो बात आई तो डरना पड़ा मुझे
यूँ ही नहीं पहुंच गया हूँ मंज़िलों पे मैं
अंगारों भरी राह पर चलना पड़ा मुझे
सबूत अपनी बेगुनाहियों का देने को
वक़्त की सलीब पर चढ़ना पड़ा मुझे
गुलदान सारे तोड़ दिए गए जो शहर के
फूलों को आतिशदान में रखना पड़ा मुझे
— भरत मल्होत्रा