जवाब दीजिये
मई माह की जानलेवा गर्मी की प्रभात वेला में मुरुड़ बीच (महाराष्ट्र) पर स्थित होटल “डिवाइन होम स्टे” के अंदरूनी विशाल द्वार पर खड़ा आशीष अपने क़दमों में लोटते अनंत सागर की अथाह गहराई में खोया हुआ था कि अचानक उसकी मौन साधना को भंग करती हुई क़दमों की आहट उसके निकट ही आकर ठहर गई. पलटकर देखा तो एक १७- १८ वर्षीय प्यारी सी किशोर वय की बालिका मोबाइल हाथ में लिए उसी को निहार रही थी.
आशीष के पलटते ही उसने अपना मोबाइल का कैमरा ऑन करके उसे देते हुए अनुरोध भरे स्वर में कहा –
“अंकल, इस समुद्र के साथ मेरी कुछ तस्वीरें लीजिये न…” और बिना आशीष के उत्तर की प्रतीक्षा किये फुदकती हुई चिकने पत्थरों की सीढ़ी से नीचे उतरने लगी. उसे आगे बढ़ते देख आशीष का कलेजा काँप उठा, घबराकर बोला-
“अरे बिटिया बस! अब और नीचे मत जाओ, मैं यहीं तुम्हारे मनपसंद चित्र खींच लूँगा.”
“डरिये मत अंकल, मैं बहुत अच्छी तैराक हूँ और वैसे भी यहाँ पानी गहरा नहीं होगा. कुछ ही देर में लहरें वापस चली जाएँगी और रेत दिखने लगेगी. मगर आप कहते हैं तो यहीं खड़ी हो जाती हूँ.” बालिका ने मुस्कुराते हुए कहा
आशीष ने उसके विभिन्न मुद्राओं में कई चित्र खींचे और ऊपर आने का आग्रह किया. वो उसकी बातचीत के तरीके से बहुत प्रभावित हुआ था. प्यार से पूछा-
“तुम कहाँ रहती हो बिटिया और यहाँ किसके साथ आई हो?”
“मैं मुंबई में बोरीवली वेस्ट के एक फ़्लैट में रहती हूँ अंकल और अपनी कोलेज की सहेलियों के साथ यहाँ आई हूँ.”
“धन्य हैं तुम्हारे माँ-पिता बेटी, बहुत अच्छे संस्कार दिए हैं तुम्हें…”
“सिर्फ माँ कहिये अंकल, मेरे पिता हमारे साथ नहीं रहते.” एकदम बेबाकी से किशोरी ने उत्तर दिया.
“क्यों भला?”
“आपके इस क्यों का जवाब देना मेरे लिए इतना आसान नहीं अंकल और अगर आपको सुनना ही हो तो पहले मेरे अनगिनत क्यों के जवाब देने होंगे…अगर आप इसके लिए तैयार हैं और आपके पास कुछ समय है तो चलिए अन्दर बैठते हैं, वहीँ चर्चा करेंगे… मेरी सहेलियाँ जल्दी नहीं उठने वालीं… मैं तो रात में अलार्म लगाकर सोई थी ताकि समुद्र के साथ सुनहरी भोर का नज़ारा कैमरे में उतार सकूँ. अच्छा हुआ यहाँ आप मिल गए वरना सेल्फी से ही संतोष करना पड़ता.”
“मैं फुर्सत में ही हूँ बेटी, इस सागर का किनारा ही मुझे यहाँ खींचकर लाता है, और अकेले ही चला आता हूँ, चलो चलते हैं.”
कुछ ही देर में वे दोनों नाश्ते के लिए रखी हुई एक टेबल पर आमने सामने थे. आशीष उस बालिका के सवाल सुनने को उत्सुक था बैठते ही बात छेड़ी-
“हाँ तो बिटिया, तुम क्या पूछना चाहती थी?”
“प्रथम तो यह बताइए अंकल कि आप स्त्री को. उसे कानूनी तौर पर मिले विशेषाधिकारों के अलावा पुरुष के समान अधिकार मिलने का कहाँ तक समर्थन करते हैं?”
आशीष पहले तो बालिका के मुँह से इतना परिपक्व सवाल सुनकर हैरानी से उसका मुँह ताकने लगा, फिर जल्दी ही सँभलकर बोला-
“अगर अधिकार मर्यादा की सीमा रेखा के अन्दर हों तो पूरी तरह समर्थन करता हूँ बेटी, मगर तुम्हारी उम्र अभी इस तरह के सवालों से उलझने की तो नहीं…”
“आप सही कहते हैं अंकल, मगर मुझे परिस्थितियों ने समय से पहले परिपक्व बना दिया है. मेरी सहेलियों के जवाब मुझे संतुष्ट नहीं कर पाते और आपकी बातों में मुझे अपनेपन की झलक दिखाई दी तो आज आपके सामने मन की बातें कह रही हूँ. हो सकता है आप पुरुष होने के नाते मेरी जिज्ञासा शांत कर दें.”
“बिलकुल हो सकता है बेटी, बेफिक्र होकर अपनी समस्या बताओ.”
“जी अंकल, आप यह बताइए कि अगर शादी के बाद स्त्री को अपने पति से वे अधिकार न मिलें तो उसे क्या करना चाहिए?”
“यह तो समय और परिस्थितियों पर निर्भर है बेटी, नारी तो शक्ति स्वरूपा है, उसे परिस्थितियों को अपने पक्ष में करने के प्रयास करने चाहियें.”
“और अगर ससुराल में परिस्थितियाँ अनुकूल न हो पाएँ यानी सास-बहू में हरसमय तनातनी चलती रहती हो तो पति की भूमिका क्या होनी चाहिए?”
“पति की स्थिति तो शादी होते ही चक्की के दो पाटों में पिसते हुए अनाज जैसी हो जाती है बेटी… वो बेचारा कर ही क्या सकता है, सिवाय चुप रहने के…”
“क्यों नहीं कर सकता अंकल, अभी आपने स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों का समर्थन किया है…फिर अगर किसी भी उपाय से बात न बने तो गृह कलह से बचने के लिए क्या उसे अपनी गृहस्थी अलग नहीं कर लेनी चाहिए?”
“और अगर लड़का माँ-पिता का इकलौता बेटा हुआ तो…?”
“तो क्या? लड़की भी अपने माँ-पिता की इकलौती संतान हो सकती है…अगर वो शादी के बाद पति के साथ गृहस्थी बसाने के सपने सँजोए अपना परिवार छोड़कर आ सकती है तो लड़का क्यों नहीं…?”
“मगर इससे तो रिश्तों की रीढ़ ही टूट जाएगी बेटी… भारतीय संस्कृति और परम्पराओं की पहचान ही खो जाएगी.”
“आप रिश्तों की रीढ़ टूटने की बात कह रहे हैं अंकल, पर यदि नारी को रूढ़ियों की रगड़ से मुक्त नहीं किया गया तो रिश्ते ही रसातल को न चले जाएँगे…?और परम्पराओं की नींव भी तो नारी के अधिकारों को कुचलने के लिए नर-समाज द्वारा ही रखी गई थी न…अब वो ज़माना नहीं जब बड़े परिवार होते थे और लड़कियों को शिक्षा से अधिक घरेलू कामकाज में दक्ष होना आवश्यक होता था. आखिर आज भी क्यों उसे हर स्थिति में ससुराल वालों की प्रताड़ना सहते रहने के लिए बाध्य किया जाता है? जब कानून ने स्त्री को इतने विशेषाधिकार दिए हैं कि गिनते-गिनते ही थक जाएँ तो पुरुष समाज उसके स्वाभाविक समान अधिकारों का आज भी हनन करना क्यों जारी रखे हुए है?”
“हुम्म…”
“एक सवाल और –
मान लीजिये अंकल, अगर शादी के बाद कोई पत्नी लगातार अपने पति के, उसकी बात मानने के अनुरोध की अवहेलना करती रहे और मानसिक तनाव की स्थिति में पति अन्य महिला की सहानुभूति पाकर उससे प्रेम सम्बन्ध स्थापित कर ले और पत्नी से विमुख होने लगे तो पता चलने पर उसकी पत्नी को क्या करना चाहिए? यानी उसे पति को दुश्चरित्र करार देकर अपनी ज़िन्दगी से निष्कासित कर देना चाहिए अथवा माफ़ करके संभलने का अवसर देना चाहिए?”
“ऐसा अक्सर होता रहता है बेटी, अगर पति की कही गई बात उचित हो तो उसकी अवहेलना करने के कारण पति के मानसिक तनाव के लिए प्रथम दृष्टया पत्नी ही दोषी मानी जाएगी. और अगर इस स्थिति में पति के कदम बहक जाएँ तो पत्नी का कर्तव्य उसे सहारा देकर सही मार्ग पर लाना और उसकी माँग पर पुनः विचार करके उचित निर्णय लेना चाहिए. एक छोटी सी भूल के लिए जीवन से निष्कासित करना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता…”
“बिलकुल सही कहा आपने अंकल और अगर यही भूल उन्हीं परिस्थितियों में पत्नी से हो जाए तो पति का भी वही कर्तव्य हो जाता है या उसके लिए अलग मापदंड होंगे? सोचकर बताइए अंकल, क्या यह प्रसंग नारी के समान अधिकारों से अलग है?
जवाब दीजिये अंकल, जवाब दीजिये…
मगर मैं जानती हूँ आप जवाब नहीं दे पाएँगे आखिर आप भी तो पुरुष ही हैं न…क्षमा कीजिये, मैं शायद कुछ अधिक ही बोल गई हूँ…”
“नहीं बेटी, मगर इन सवालों का मेरे उस सवाल से क्या सम्बन्ध है?.”
“है अंकल बिलकुल है…मेरी माँ से एक ऐसी भूल हो गई थी जिसे औरत के लिए बहुत बड़ी और पुरुष के लिए यह समाज मामूली मानता है… जब माँ के अलग गृहस्थी बसाने के लिए बार-बार अनुनय विनय और फ़रियाद के बावजूद पिताजी ने उसे ससुराल रूपी दमघोंटू पिंजरे से मुक्त करने का कोई प्रयास नहीं किया तो एक अन्य पुरुष की सहानुभूति पाकर वो उसकी तरफ आकर्षित हो गई थी…पता चलने पर मेरे पिता ने उसे माफ़ नहीं किया और दुश्चरित्र करार देकर घर से निष्कासित कर दिया. उन्होंने यह नहीं सोचा कि उस भूल के मूल में उनकी ही गलती है.”
“फिर तो उनका तलाक हो गया होगा?”
“नहीं, इसके लिए किसी ने पहल नहीं की. दस साल बीत चुके हैं. माँ कहती है वो चाहती तो हर्जा-खर्चा वसूल कर सकती थी मगर उसने तो प्यार किया था…सौदा कैसे करती?”
“फिर गुजर-बसर किस तरह हो रही है बेटी…क्या तुम्हारी माँ नौकरी करती है?”
“जी अंकल, वो एक माध्यमिक स्कूल में शिक्षिका है. शादी के बाद पिताजी की शर्त के अनुसार उसने नौकरी छोड़ दी थी…एक बात और, वो अपने माँ-पिता से अलग रहते हुए भी परोक्ष रूप से उनकी देखरेख करके अपना फ़र्ज़ बखूबी निभा रही है…”
“वो देखिये अंकल, मेरी सहेलियाँ तैयार होकर आ गईं. नाश्ता लग चुका है, आप ले लीजिये, हमें भी नाश्ता करके यह होटल छोड़ना होगा, मेरा मोबाइल नंबर नोट कर लीजिये. कभी मेरे सवालों के जवाब मिल जाएँ तो संपर्क कर लीजियेगा…मेरा नाम आर्ची है…” कहते हुए बालिका अपनी सहेलियों की तरफ बढ़ गई.
आर्ची… आशीष को बालिका की बातों से कुछ अनुमान तो हो गया था कि यह कहानी उसी से संबंधित है…अब उसका नाम सुनते ही उसे पूरा विश्वास हो गया कि आर्ची उसी की बेटी है. अचानक उसका मस्तिष्क सुन्न होने लगा और वो नाश्ता भूलकर अपना सर पकड़कर वापस वहीं बैठ गया. उसकी आँखें मुंदी जा रही थीं और कहानी १० साल पहले की समय रेखा पर पहुँच गई थी.
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नवी मुंबई के पनवेल शहर में रहने वाला आशीष अपने माँ-पिता की इकलौती संतान था. कालेज से बी. टेक की पढ़ाई पूरी होने के बाद वो किसी अच्छी कंपनी में जॉब करना चाहता था मगर उसके पिता चाहते थे कि वो उसके व्यवसाय में सहायता करे. आखिर आगे पीछे यह सब उसे ही सँभालना है. आशीष अपने पिता की इच्छा के विपरीत नहीं जा सकता था अतः अपना कैरियर त्यागकर पिता के व्यवसाय से जुड़ गया. कोलेज छूटते ही उसके सारे मित्र छूट गए, वो मौज-मस्ती, आज़ादी सब भूल गया, बस नहीं भूला तो मुरुड़ का सागर-किनारा जो उसके दिल-दिमाग में गहरे रचा-बसा हुआ था. वो गंभीर प्रकृति का युवक था. जहाँ उसके सहपाठी सैर-सपाटे का कार्यक्रम अपनी गर्ल-फ्रेंड्स के साथ बनाते थे वहीं आशीष अपने चुनिन्दा मित्रों के साथ १५-२० दिनों के अंतराल से मुरुड़-बीच पर ही जाना पसंद करता था और उसके रुकने का मनपसंद स्थान “डिवाइन होम स्टे” होटल ही हुआ करता था.
व्यवसाय में आने के बाद उसने शीघ्र ही अपनी रुचि के कुछ मित्र बना लिए और मुरुड़-बीच पर जाने का क्रम जारी रहा. तीन-चार मित्र मिलकर सुबह निकल पड़ते, तीन घंटे सफ़र के बाद भोजन करके शाम तक बीच पर लहरों के साथ अठखेलियाँ करते और एक रात होटल में बिताकर अगले दिन वापस हो लेते थे. प्रकृति-प्रेमी आशीष को अगले दिन की सुबह का बेसब्री से इंतज़ार रहता और वो मुँह-अँधेरे उठकर मित्रों को सोता छोड़कर नीचे आ जाता और भोजन परिसर में स्थित बड़े से गेट के पास कुर्सी पर बैठकर रात में ज्वार चढ़े सागर का सुबह की सुखद बयार में चरणों में लोटता हुआ रूप मुग्ध होकर आत्मसात करता रहता. शाम के समय होटल से कुछ दूर जो लहरें चंचलता की चुनरी ओढ़कर उछलकूद मचातीं वे सुबह की वेला में पुनः प्रिय-दर्शन के इंतज़ार में शांत और गंभीर रूप धारण कर लेती थीं. यह नज़ारा उसे बहुत प्रिय था. जब तक मित्रगण उठकर नाश्ते के लिए नीचे पहुँचते, वो वहीं बैठा रहता था.
ऐसी ही उस मुरुड़-बीच की एक सुहानी सुबह को आशीष अपने मित्रों को होटल के कमरे में सोता छोड़कर नीचे आकर सागर से मिलने उस गेट के पास पहुँचा तो सामने ही उसे एक युवती ढलान से कुछ नीचे उतरकर सेल्फी लेती हुई दिखाई दी. उसकी पिंडलियाँ घुटनों से कुछ नीचे तक पानी में डूबी हुई थीं. वो गहरे नीले रंग के नाइट-सूट में एक जलपरी जैसी प्रतीत हो रही थी. आशीष खड़े होकर मुग्ध-मन उस रूपसी को निहारने लगा.
आशीष प्रकृति के इस दोहरे सौंदर्य का रसपान कर ही रहा था कि अचानक युवती का पैर फिसला या वो पत्थर जिसपर वो खड़ी थी, वो नीचे की तरफ गिरते हुए जोर से चिल्ला उठी. हतप्रभ आशीष जूते उतारकर मोबाइल वहीं पटककर तुरंत दौड़ पड़ा और उसने कुछ नीचे उतरकर झुककर अपना संतुलन बनाते हुए युवती को दोनों बाजुओं से कसकर पकड़ लिया. थर-थर काँपती युवती की जान में जान आई. मगर अब आशीष की स्थिति ऐसी थी कि वो घुटनों तक पानी में डूबी युवती को उस ढलान से ऊपर खींच नहीं पा रहा था. अधिक जोर लगाने पर चट्टान फिसलने का डर था. उसने सहायता के लिए जोर जोर से आवाजें लगाईं मगर आसपास कोई न होने से उसकी प्रतिध्वनि ही वापस सुनाई दी. अब वो क्या करता. उसने पीछे पलटकर चिकने पत्थरों से निर्मित ढलाननुमा सीढ़ी को देखा और युवती को जोर से बाँहों में भींचकर पीछे की ओर खिसकते हुए चित लेट गया. युवती उसके सीने से लगी उसके ऊपर ही पड़ी भय से काँप रही थी. अब वे खतरे से बाहर आ गए थे. आशीष ने उसने युवती के हाथ में मोबाइल देखकर कहा-
“प्लीज़ आप रिलेक्स हो जाइये और होटल मैनेजर को काल कीजिये मेरा मोबाइल ऊपर दूर पड़ा है.”
युवती ने अपनी बढ़ी हुई धडकन पर काबू पाकर मैनेजर को काल करके अपनी स्थिति बयान कर दी.
कुछ ही पलों में सिक्योरिटी के जवानों सहित मैनेजर भी वहाँ दौड़ा आया. भीड़ देखकर कुछ लोग भी एकत्रित हो गए. अजीब नज़ारा था मगर उन्हें सुरक्षित ऊपर खींच लिया गया. दोनों के वस्त्र गीले हो चुके थे. एक दूसरे को देखकर उस स्पर्श का अहसास करके दोनों के होठों पर मुस्कान उभर आई. भीड़ छंटते ही आशीष ने उसे ऊपर जाकर तुरंत वस्त्र बदलने के लिए कहा मगर युवती को अभी भी बेहाल देखकर उसने उसका हाथ पकड़कर सीढियों से ऊपर तक पहुँचाया. इत्तफाक से दोनों के कमरे एक ही गैलरी में थे. दोनों अपने अपने कमरे की और मुड़ गए.
आशीष ने देखा, उसके साथी अभी तक आराम फरमा रहे थे. उसने बेआवाज़ वस्त्र बदले और पुनः नीचे आ गया.
युवती के उस स्पर्श के अहसास से उसके होंठ रह रह कर मुस्कुरा उठते थे. और जैसा उसका अनुमान था, वस्त्र बदलकर वो युवती भी नीचे पहुँच गई और आशीष के निकट आकर शर्म से नज़रें नीची किये हुए ही बोली-
“बहुत बहुत धन्यवाद मि…”
“आशीष…मेरा नाम आशीष है मिस…”
“आप मुझे रचना कह सकते हैं, आशीष जी, आज अगर आप वहाँ न होते तो मेरा न जाने क्या हाल होता.”
“धन्यवाद तो ऊपरवाले को कहिये रचना जी, उसके मन में कुछ तो बात होगी जो हमें इस तरह मिलवाया… आइये, जब तक हमारे साथी नीचे आएँ हम वहाँ लान में चलते हैं.”
लॉन में साथ-साथ टहलते हुए ही उनके बीच परिचय से लेकर विचारों का आदान-प्रदान होता रहा. रचना मुंबई के ही बोरीवली वेस्ट में रहती थी और एक माध्यमिक स्कूल में शिक्षण कार्य करती थी. वो भी अपने माँ-पिता की इकलौती बेटी थी. यहाँ अपने स्कूल की शिक्षिकाओं के साथ घूमने आई थी. अब घर में उसके लिए वर खोजने की प्रक्रिया आरम्भ हो गई थी. आशीष के माँ-पिता ने तो उसके लिए सुन्दर सुशिक्षित लड़कियों के चित्रों का ढेर ही लगा दिया था. बस उसकी पसंद और सहमति की ही देर थी. मगर अब एक दूसरे के उस मादक स्पर्श से दोनों के मन में प्रेम का बीज प्रस्फुटित होने लगा था जो उनके तन मन को उद्वेलित किये जा रहा था. प्रेम के इज़हार के लिए पहल आशीष को ही करनी थी, फिर दुबारा यह अवसर मिले न मिले यह सोचकर आशीष ने बिना किसी भूमिका के रचना के आगे विवाह का प्रस्ताव रख दिया. रचना ने नज़रें झुकाकर मौन स्वीकृति दे दी. आशीष ने उत्साह पूर्वक प्यार से उसका हाथ थामा और दोनों निकट ही एक झूले पर बैठकर भविष्य के सपनों में खो गए.
अब घर वालों को सूचित करना ही बाकी था. एक ही जाति के होने से उनके मिलन में किसी रुकावट की संभावना नहीं के बराबर थी. दोनों एक दूसरे से जुदा होना चाहते तो नहीं थे मगर दोनों के मित्रगण साथ थे, अतः सदा के लिए एक दूसरे का होने के वादे और मोबाइल नंबरों के आदान प्रदान के साथ वे अपने अपने कमरों की ओर बढ़ गए.
अब दोनों को घर पहुँचकर अपने अपने परिजनों को अपनी पसंद पर मुहर लगाने के लिए तैयार करने की जल्दी थी. आशीष की माँ ने उसकी पसंद का स्वागत करते हुए एक ही शर्त रखी कि शादी के बाद रचना नौकरी नहीं करेगी, ताकि पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करना आसान हो. रचना के माँ-पिता के लिए बेटी की प्रसन्नता ही सबसे बढ़कर थी. बस रचना को इतनी पढ़ाई के बाद घर बैठना गवारा नहीं था, लेकिन अपने प्यार की खातिर उसने अपने सपनों की बलि देना भी स्वीकार कर लिया.
शीघ्र ही देखने दिखाने की औपचारिकता के साथ सगाई हो गई और शादी का शुभ मुहूर्त भी निकलवा लिया गया जो छः महीने बाद का था. तब तक उन्होंने हर सप्ताहांत में उसी बीच पर मिलते रहने का एक दूसरे से वादा किया.
आशीष और रचना के लिए प्रेम ऋतू शुरू हो चुकी थी. सप्ताह के पाँच दिन तो काटे नहीं कटते थे और अंतिम दो दिन समय जैसे पंख पहन लेता था. वे आने-जाने के चंद घंटों के अलावा सारा दिन हाथों में हाथ डाले बीच पर प्रेमालाप में बिताते और देर रात घर वालों की हिदायत के अनुसार होटल के अपने-अपने कमरों में सो जाते.
उन्होंने शादी के बाद हनीमून के लिए भी आपसी सहमति से मुरुड बीच पर आना तय किया और आशीष ने मुरुड के सबसे अच्छे होटल में एक सप्ताह के लिए कमरा भी बुक करवा लिया.
समय ने करवट बदली और छः महीने बीतते ही उनका शुभ-विवाह संपन्न हो गया. इस तरह दो प्रेमी सदा के लिए एक दूसरे के हो गए.
शादी के कुछ महीनों बाद ही रचना गर्भवती हो गई और समय पर एक स्वस्थ और सुन्दर बालिका को जन्म दिया. आशीष तो बेटी पाकर फूला नहीं समाया और उन दोनों ने अपने नामों को मिलाकर उसे आर्ची नाम दिया.
बच्ची के जन्म के साथ ही रचना की पारिवारिक जवाबदारियों में वृद्धि होती गई और साथ ही नई परेशानी भी शुरू हो गई.
उसकी सास बहुत तुनकमिजाज महिला थी. वो रचना की हर गतिविधि में मीन-मेख निकालना और टोकते रहना अपना अधिकार समझती थी. पहले तो रचना समय पर सब ठीक होने की उम्मीद में चुपचाप सहन कर लेती थी मगर गुड़िया के जन्म के बाद उसके मानसिक शोषण में वृद्धि होती गई और वो उस दमघोंटू पिंजरे में बंद कैदी सी छटपटाने लगी थी. रात में अगर वो आशीष से शिकायत करती तो वो सुनी अनसुनी कर देता या रचना को ही सामंजस्य बनाए रखने की हिदायत देता. रचना अब बुझी बुझी सी रहने लगी थी. उसकी बात सुनने वाला कोई नहीं था…
एक दिन रात को प्रेमालाप के पलों में रचना ने आशीष को प्यार से अपनी परेशानी बताकर गृहस्थी अलग बसाने की बात कही तो वो भड़क गया और बोला-
“यह तुम क्या कह रही हो रचना…मैं अपने माँ-पिता का इकलौता बेटा हूँ, यह नहीं हो सकता. फिर कभी यह बात अपने मुँह से न निकालना…”
रंग में भंग होते ही दोनों मुँह फेरकर सो गए. रचना को अब आशीष से विरक्ति सी होने लगी थी, रात को उसके पास जाने से कतराने लगी. दिन में बाहर से सब ठीक लगता. कभी-कभी मित्रगण सपत्नीक आते तो उसकी उदासी कुछ कम हो जाती. मगर एक दिन आशीष के नजदीकी मित्र सुबोध ने उसकी मनोदशा को ताड़ लिया और पत्नी के सामने ही उसे विश्वास में लेकर उसके मन की बात जान ली. उसके बाद सुबोध जब-तब उसे कुरेदकर सहानुभूति जताता रहता. धीरे-धीरे रचना उसकी ओर आकर्षित होने लगी और आशीष से विकर्षण बढ़ता गया. उनके प्यार को तो जैसे दीमक चाट गई थी.
आशीष रचना के इस व्यवहार से दुखी रहने लगा. वो स्थिति सुधारने के लिए हर संभव प्रयास करता मगर प्रेम इज़हार के समय रचना अपनी माँग प्रस्तुत कर देती और मुँह फेरकर सो जाती. उनका सम्बन्ध अब नाम मात्र को ही रह गया था, मगर आशीष ने इसकी भनक अपने माँ-पिता को नहीं लगने दी.
रचना ने अपना सारा ध्यान अब बिटिया पर ही केन्द्रित कर लिया. जिस तरह आशीष उसकी बात सुनी-अनसुनी कर देता था, वो भी अब सास की कही हर बात की अवहेलना करने लगी. सास उसके व्यवहार की शिकायत बेटे से करती तो वो इस तरफ से भी कान बंद करके चुप्पी ओढ़ लेता. अब वो अक्सर रात को देर से आने लगा था. जब घर पहुँचता तब तक रचना बिटिया के साथ सो चुकी होती. समय गुजरता रहा और उनके बीच की खाई बढ़ती ही चली गई. आर्ची आठ साल की हो चुकी थी और प्रायमरी स्कूल की दूसरी कक्षा में पहुँच गई थी.
आशीष का मित्रों से मिलना अब घर पर ही कभी कभी होता था, मुरुड बीच पर भी अब उसका मन जाने को तैयार नहीं होता था. हाँ, सुबोध का उसके घर आना जाना बढ़ गया था. वो उसके पड़ोस में ही रहता था और हर सप्ताह पत्नी सहित आ जाया करता था.
आशीष के माँ-पिता अक्सर अपने वरिष्ठ मित्रों के साथ घूमने चले जाते थे. ऐसे ही एक बार वे ७-८ दिनों के लिए बाहर गए हुए थे. आशीष दिन में केवल छुट्टी के दिन ही घर पर रहता था. बाकी दिन देर रात आना ही उसका नियम बन गया था. एक दिन वो तबियत भारी होने से दिन में ही अपना कामकाज कर्मचारियों को समझाकर आराम करने के विचार से घर पहुँचा. रचना को सूचित करना उसने आवश्यक नहीं समझा. मुख्य द्वार की चाबी सबके पास रहती थी, उसने लॉक खोलकर जैसे ही अन्दर प्रवेश किया, बैठक का दृश्य देखकर जैसे उसे लकवा मार गया. रचना और सुबोध सोफे पर ही आलिंगन-बद्ध होकर प्रेमालाप में व्यस्त थे. आशीष पर नज़र पड़ते ही सुबोध उठा और सर झुकाए हुए तीर की भांति द्वार से बाहर हो गया.
उसके जाते ही आशीष गुस्से के मारे दहाड़कर बोला-
‘धोखेबाज़ औरत, मुझे तुमसे ऐसी नीच हरकत की उम्मीद नहीं थी. मुझसे इसी कारण दूर भागने लगी थी न…
अच्छा हुआ तुम्हारी असलियत सामने आ गई…अब तुम्हें मेरे घर में रहने का कोई अधिकार नहीं है, तुम जहाँ चाहो जा सकती हो…मैं तुम्हें आज़ाद करता हूँ .”
रचना हक्की बक्की थर-थर काँप रही थी कि यह क्या हो गया… वो समझ नहीं पा रही थी कि उससे इतनी बड़ी गलती कैसे हो गई…वो रो-रो कर आशीष को सफाई देने लगी कि सुबोध पहली बार ही अकेले में आया था और बातों में वो न जाने कैसे बहक गई. उनका सम्बन्ध बोलचाल तक ही सीमित था. वो उसे माफ़ कर दे…फिर कभी उसके किसी मित्र के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखेगी. मगर आशीष नहीं पिघला और सख्त लहजे में कहा –
“हमारा रिश्ता समाप्त हो चुका है, अपने पिता से कहो वो तुम्हें आकर ले जाए…”
रचना चली गई…आशीष की दुनिया वीरान हो चुकी थी…उसका प्यार और वफ़ा से विश्वास उठ गया था…माँ पिता के आने पर यही बताया कि वो घर की परेशानी के कारण चली गई है. कुछ दिन गुजरने पर माँ ने उसे ले आने के लिए कहा तो उसने जवाब दिया कि अब वो यहाँ कभी नहीं आएगी.
रचना को गए आज दस साल बीत चुके हैं. तलाक की पहल दोनों में से किसी ने नहीं की. आशीष ने जैसे संन्यास ओढ़ लिया था. घर में माँ-पिता की किसी बात का जवाब नहीं देता और हर सप्ताह मुरुड-बीच पर मन की शान्ति की तलाश में चला आता है मगर अब उसे सुबह का नज़ारा नहीं लुभाता. सारे रंग बुझे-बुझे लगते हैं. वो प्रतिपल खुद से ही सवाल करता रहता है कि उसने भी तो प्यार किया था… आखिर उससे भूल कहाँ हुई…?
और आज आर्ची ने उसे उसकी भूल का अहसास दिला दिया था. फिर भी तय नहीं कर पा रहा कि उसके सवालों का क्या जवाब दे… कभी पितृत्व मोम होने लगता है तो रचना की बेवफाई याद करके मन शिला बन जाता है. बेटी का प्यार उसे अपनी भूल स्वीकार कर आगे बढ़ने और नया जीवन आरम्भ करने को कहता है तो अंतर का दम्भी पुरुष वापस उसे पीछे खींच लेता है. आखिर जाए तो कहाँ जाए…?