महंगाई बनाम बेरोजगारी
वस्तु की कीमत में वृद्धि महंगाई कहलाती है ।वर्तमान में यह एक सामाजिक और आर्थिक समस्या के रूप में व्याप्त है। जमाखोरी, कालाबाजारी ,दोषपूर्ण वितरण प्रणाली ,बढ़ती मुद्रास्फीति, आर्थिक अनुशासन की कमी आदि ऐसे अनेक कारण हैं जिनके कारण महंगाई फल-फूल रही है। कृषि प्रधान देश होने के कारण कृषि को भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहा जाता है। कृषि एवं इसके उत्पाद देश को आर्थिक संबल प्रदान करने में महती भूमिका निभाते हैं ।किंतु विडंबना यह है कि विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में विशेष स्थान पाने के बाद भी कृषि क्षेत्र में यथोचित क्रांति नहीं आ पाई है। ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में कार्य नहीं हुए ।स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में की गई खोजों और अविष्कार के चलते उत्पादन क्षमता में आशा से अधिक वृद्धि हुई। किंतु यह भी सत्य है कि जनसंख्या उससे कहीं अधिक तेजी से बढ़ी जिसके कारण खाद्यान्न की पूर्ति जस की तस बनी हुई है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि और अन्य कारणों के चलते उपज की कमी आज भी गंभीर समस्या है। इसके अतिरिक्त भंडारण की पर्याप्त व्यवस्था न होना, अपर्याप्त परिवहन व्यवस्था,दोषपूर्ण बाजार व्यवस्था के कारण कृषि कार्य से जुड़े लोग अपनी मूलभूत आवश्यकताओं रोटी कपड़ा और मकान की पूर्ति भी कर पाने में स्वयं को असमर्थ महसूस करते हैं। आर्थिक अनुशासन की कमी के चलते महंगाई में वृद्धि होती जा रही है अमीर और अमीर जबकि गरीब और गरीब होता जा रहा है। गरीब एवं मध्यम वर्गीय परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुटा पाना मुश्किल हो रहा है। आयात निर्यात की गलत नीति तथा आयतित महंगाई के कारण दैनिक उपभोग की वस्तु की कीमत निरंतर बढ़ रही है। वस्तुओं की कीमत में वृद्धि का एक अन्य कारण मुद्रा के मूल्य की गिरावट भी है। किसी लेख में इस बात का उल्लेख किया गया था कि ,बढ़ती महंगाई और गिरती आमदनी देखकर ऐसा लगता है कि एक आम आदमी को “आधार कार्ड” कि नहीं” उधार कार्ड “की जरूरत है।
महंगाई के साथ-साथ समानांतर रूप से चलने वाली एक अन्य विकराल समस्या है ,”बेरोजगारी”। काम करने के इच्छुक व्यक्ति के लिए काम की उपलब्धता न होना अथवा उसकी योग्यता के अनुसार उपलब्धता न होना बेरोजगारी कहलाता है। मंद औद्योगिक विकास ,जनसंख्या विस्फोट, रोजगारमुखी शिक्षा का अभाव, कुटीर एवं लघु उद्योग की उपेक्षा एवं गिरावट, तकनीकी ज्ञान का अभाव, कृषि मजदूरों के लिए वैकल्पिक रोजगार के अवसरों की कमी आदि ऐसे अनेक कारण हैं जो बेरोजगारी उत्पन्न करते हैं। हमारे देश में बेरोजगारी के अनेक स्वरूप देखने को मिलते हैं। जैसे मौसमी बेरोजगारी( कृषि क्षेत्र में )प्रच्छन्न बेरोजगारी( जिसमें कुछ लोगों की उत्पादकता शून्य होती है )संरचनात्मक बेरोजगारी (आर्थिक संरचना में बदलाव के कारण )ऐच्छिक बेरोजगारी इत्यादि। हमारे देश में पूंजी दुर्लभ लेकिन श्रम प्रचुर मात्रा में है इसलिए यहां श्रम आधारित तकनीकों का प्रयोग होना चाहिए किंतु विकृत आर्थिक नीतियों के चलते पूंजी का प्रयोग बड़ा है स्वचालित यंत्रों के अधिकाधिक प्रयोग से श्रम की आवश्यकता कम हो गई है जिसके कारण बेरोजगारी बढी है। दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति के चलते शिक्षित बेरोजगारों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ रही है जो पैतृक उद्योग धंधे अपनाने, मेहनत, मजदूरी करने में स्वयं को अपमानित महसूस करते हैं। लोगों के पास हाथ है लेकिन काम नहीं है ,प्रशिक्षण योजनाएं व उत्साह है किंतु अवसर का अभाव है। परंपरागत हस्तकला ,ग्रामीण कारीगरों, दस्त कारों, कृषि मजदूरों के लिए ग्रामीण एवं अर्ध शहरी क्षेत्रों में स्व रोजगार के साधन उपलब्ध नहीं है। कृषि की विधियां तकनीकी पुरानी हो चुकी है भूमि सुधार चकबंदी राजनैतिक और प्रशासनिक अध्यक्षता और किसानों के प्रति सहयोगात्मक रवैया के कारण युवा वर्ग इस क्षेत्र में रोजगार तलाशने में हिचकिताता है और छोटी मोटी मासिक वेतन वाली नौकरी की तलाश में शहरों की ओर पलायन करता है। जिससे कि वह अपने परिवार का पालन पोषण कर सके।
यद्यपि सरकार के द्वारा रोजगार हेतु तथा स्वरोजगार को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न योजनाएं चलाई जा रही हैं। नेशनल रूरल एंप्लॉयमेंट प्रोग्राम(NREP), रूरल लैंडलेस लेबर एंप्लॉयमेंट गारंटी प्रोग्राम(RLEGP), TRYSEM, draught प्रोन एरिया प्रोग्राम(DPAP) इंटीग्रेटेड रूरल डेवलपमेंट प्रोग्राम(IRDP) जवाहर रोजगार योजना(JRY) कुछ इसी प्रकार की योजनाएं हैं किंतु इसका कोई सार्थक प्रभाव परिलक्षित नहीं हो रहा है।
सुरसा की तरह मुंह फाड़े महंगाई और बढ़ती बेरोजगारी के चलते विभिन्न प्रकार की सामाजिक समस्याएं ,अपराध में वृद्धि ,निम्न स्तर का रहन सहन, अपर्याप्त पोषण, कौशल और हुनर का नुकसान ,आर्थिक विकास में गिरावट, राजनैतिक अस्थिरता जैसे समस्याएं बलवती हो रही हैं। अतः समय रहते इनका प्रभावी निराकरण नितांत आवश्यक है।
महंगाई और बेरोजगारी पर आधारित चंद पंक्तियां अधोलिखित हैं:
आमदनी अठन्नी; खर्चा रुपैया लगता है,
महंगाई के दौर में ;जन जन उखड़ा रहता है।
सबके चेहरों पर ;मायूसी का आलम रहता है,
राशन, सब्जी, फीस, दवाई सब का टेंशन रहता है।
महंगाई का अजगर देखो; सबको निगले जाता है,
रात की क्या बात करें; दिन में तारे दिख लाता है।
होठों पर फीकी मुस्कान ;दिल में धक-धक सी होती है,
मास के जाते जाते, सब की हालत पतली लगती है।
भ्रष्टाचार, कालाबाजारी से महंगाई खूब इतराई है,
मंदी के इस दौर में ;बेरोजगारी ने भी ली अंगड़ाई है।
रोजगार की बात करें क्या, कितनों ने नौकरी गंवाई है,
दोनों ने मिलकर जनता की जान आफत में लाई है।
— कल्पना सिंह