धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

मनुष्य के भक्ष्य व अभक्ष्य भोजन विषयक वैदिक नियम व व्यवहार

ओ३म्

दूसरे मनुष्य के हाथ से बना व पका तथा छुआ हुआ भोजन करने के विषय में हमारे देश के सनातनी बन्धुओं में अनेक प्रकार के भ्रम व मान्यतायें प्रचलित रही हैं। एक प्रश्न यह भी है कि क्या द्विज  (ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य) अपने हाथ से रसोई बना के खावें या शूद्र (अज्ञानी, अशिक्षित, सदाचारी तथा साधारण बुद्धि रखने वाला स्वस्थ व्यक्ति) के हाथ की बनाई खावें? इस प्रश्न का उत्तर ऋषि दयानन्द अपने वेद सम्मत ज्ञान के आधार पर उत्तर देते हुए कहते हैं कि शूद्र के हाथ की बनाई खावें क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णस्थ स्त्री पुरुष विद्या पढ़ाने, राज्य-पालने और पशुपालन, खेती और व्यापार के काम में तत्पर रहें। वह यह भी कहते हैं कि शूद्र के पात्र में तथा उस के घर का पका हुआ अन्न आपत्काल के बिना न खावें। इसका प्रमाण है आर्याधिष्ठिता वा शूद्राः संस्कत्र्तारः स्युः।’ यह आपस्तम्ब का सूत्र है। आर्यों के घर में शूद्र अर्थात् मूर्ख स्त्री पुरुष पाकादि बनावें अन्य सेवा किया करें परन्तु वे शरीर वस्त्र आदि से पवित्र रहें। आर्यों के घर में जब रसोई बनावें तब मुख (में वस्त्र) बांध के बनावें, क्योंकि उनके मुख से उच्छिष्ट और निकला हुआ श्वास भी (शुद्धता की दृष्टि से) अन्न में न पड़े। (आजकल विज्ञान भी इन बातों को स्वीकार करता है।) आठवें दिन क्षौर, नखच्छेदन करावें। स्नान करके पाक बनाया करें। आर्यों को खिला के वह स्वयं खावें।

सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के दशम समुल्लास में ऋषि दयानन्द जी ने एक प्रश्न यह भी उठाया है कि जब (द्विज) शूद्र के छुए हुए पके अन्न के खाने में दोष लगाते हैं तो उस के हाथ का बनाया कैसे खा सकते हैं? इसका उत्तर देते हुए ऋषि दयानन्द जी ने बताया है कि यह बात कपोल कल्पित झूठी है। वह कहते हैं कि जिन्होंने गुड़, चीनी घृत, दूध, पिशान, शाक, फल, मूल खाया है, उन्होंने जानो सब जगत् भर के हाथ का बनाया और उच्छिष्ट (झूठा भोजन) खा लिया। क्योंकि जब शूद्र, चमार, भंगी, मुसलमान, ईसाई आदि लोग खेतों में से ईख को काटते, छीलते, पीलकर रस किालते हैं तब मलमूत्रोत्सर्ग करके उन्हीं विना धोये हाथों से छूते, उठाते, धरते आधा सांठा चूस रस पीके आधा उसी में डाल देते और रस पकाते समय उस रस में रोटी भी पकाकर खाते हैं। जब चीनी बनाते हैं तब पुराने जूते कि जिस के तले में विष्ठा, मूत्र, गोबर, धूल लगी रहती है उन्हीं जूतों से उस को रगड़ते हैं। दूध में अपने घर के उच्छिष्ट पात्रों का जल डालते, उसी में घृतादि रखते और आटा पीसते समय भी वैसे ही उच्छिष्ट हाथों से उठाते और पसीना भी आटे में टपकता जाता है इत्यादि। फल मूल कन्द में भी ऐसी ही लाला होती है। जब इन पदार्थों को खाया तो जानो सब के हाथ का खा लिया।

हमारे देश में बहुत से लोग हैं जो दूसरे लोगों के हाथ का छुआ खाने में भेदभाव करते व हानि मानते हैं। वह कहते हैं कि फल, मूल, कन्द और रस इत्यादि अदृष्ट में दोष नहीं मानते। ऐसे लोगों को उत्तर देते हुए ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि अच्छा तो भंगी वा मुसलमान अपने हाथों से दूसरे स्थान में बनाकर तुम को आके देवे तो उसे तुम खा लोगे वा नहीं? जो कहो कि नहीं तो अदृष्ट में भी दोष है। हां, ईसाई आदि मद्य मांसाहारियों के हाथ के खाने में आर्यों को भी मद्य, मांसादि खाना पीना अपराध पीछे लग पड़ता है परन्तु आपस में आर्यों का एक भोजन होने में कोई भी दोष नहीं दीखता। जब तक एक मत, एक हानि लाभ, एक सुख दुःख परस्पर मानें तब तक उन्नति होना बहुत कठिन है। परन्तु केवल खाना पीना ही एक होने से सुधार नहीं हो सकता किन्तु जब तक बुरी बातें नहीं छोड़ते और अच्छी बातें नहीं अपनाते तब तक बढ़ती के बदले हानि होती है।

ऋषि दयानन्द ने इसी प्रकरण में भारत परतन्त्र वा गुलाम क्यों हुआ, इसके भी कारण बतायें हैं। वह कहते हैं कि विदेशियों के आर्यावत्र्त में राज्य होने के कारण (देशवासी आर्यों की) आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विद्या न पढ़ना-पढ़ाना वा बाल्यावस्था में अस्वयंवर विवाह, विषयासक्ति, मिथ्याभाषणादि कुलक्षण, वेद विद्या का अप्रचार आदि कुकर्म हैं। जब आपस में भाई-भाई लड़ते हैं तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है।

ऋषि दयानन्द देशवासियों से प्रश्न करते हैं कि क्या तुम लोग महाभारत की बातें जो पांच सहस्र वर्ष के पहले हुई थीं उन को भी भूल गये? देखो! महाभारत युद्ध में सब लोग लड़ाई में सवारियों पर खाते पीते थे, आपस की फूट से कौरव पाण्डव और यादवों का सत्यानाश हो गया सो तो हो गया परन्तु अब तक भी वही रोग पीछे लगा है। जाने यह भयंकर राक्षस कभी छूटेगा वा आर्यों को सब सुखों से छुड़ाकर दुःखसागर में डुबा मारेगा? उसी दुष्ट दुर्योधन गोत्र-हत्यारे, स्वदेश-विनाशक, नीच के दुष्ट मार्ग में आर्य लोग अब तक भी चल कर दुःख बढ़ा रहे हैं। परमेश्वर कृपा करें कि यह राजरोग हम आर्यों में से नष्ट हो जाय। इसके बाद ऋषि दयानन्द ने भक्ष्य, अभक्ष्य की चर्चा की है। उन्हें लिखा है कि भक्ष्य व अभख्य दो प्रकार के होते हैं। एक धर्म शास्त्रों के विधान के अनुसार होता है और दूसरा चिकित्सा वा वैद्यक शास्त्रों के अनुसार। इस पर उन्होंने विस्तार से प्रकाश डाला है। इसके लिये पाठकों को सत्यार्थप्रकाश का दशम समुल्लास पढ़ना चाहिये। ऐसा करने से उनका शरीर दीर्घ काल तक स्वस्थ व बलवान बना रहेगा और रोगों से भी बचा रहेगा।

सत्यार्थप्रकाश पढ़कर पाठकों को भोजन विषयक महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होगी जिससे वह अपने जीवन को सत्यमार्ग में चला कर मनुष्य जीवन के उद्देश्यों को पूरा कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने सत्य ज्ञान की खोज व उसके आचरण में ही अपने जीवन को व्यतीत किया। उनके वेद प्रचार से सारे विश्व का मानव समुदाय लाभान्वित हुआ है। उनकी कृपा से ही हम ईश्वर व आत्मा के सत्य स्वरूप, गुण, कर्म व स्वभाव को जान पाये हैं। मनुष्य जीवन का उद्देश्य व सद्कर्मों के महत्व सहित पुनर्जन्म व उसका आधार पूर्वजन्म के कर्मों का ज्ञान भी वैदिक विचारधारा के अध्ययन से ठीक-ठीक होता है। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर ईश्वर व आत्मा आदि के ज्ञान सहित मनुष्य जीवन की भौतिक उन्नति के मार्ग भी खुलते हैं तथा मनुष्य पाप कर्मों व उसके परिणाम दुःखों से बच जाता है। हमारा शरीर अन्नमय है। शरीर व उसके सभी बाह्य व अन्तःकरण आदि उपकरण अन्न से ही बने हैं। अतः हमें अन्न वा अपने भोजन सहित भक्ष्य व अभक्ष्य का यथोचित ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने इस महत्वपूर्ण विषय पर जो प्रकाश डाला है वह अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं होता। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ उनका मानवजाति पर बहुत बड़ा उपकार है।

ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ सन् 1883 में लिखा था। उस समय की हिन्दी और आज की हिन्दी भाषा व इसके शब्दों में काफी परिवर्तन आया है। अतः ऋषि दयनन्द के कुछ शब्द आपको अटपटे लग सकते हैं। हमने उनके शब्दों को वैसा ही रखा है। अतः पाठक लेख पढ़ते समय इस बात का कृपया ध्यान रखें। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य