कविता – विकास की बयार
पुरब और पश्चिम
बदल रही है सोच या हवा बदल रही
पुरब की हवा अब पश्चिम से जा मिली
आरक्षण की चक्की में पीसने से पहले
रोते बिलखते आँसू बहाते छोड़ गये
पहले दिल्ली दुर है सुना करते थे
अब तो सात समंदर पार भी बातें करते हैं
आँखों में सपने …सपनों में बेबसी
सबकुछ संभाल कर वो निकल गये
अपनी भाषा और तहजीब को भूलकर
काँटों भरी राह पर चल पड़े
पाँचों अँगलीयाँ मुँह में जायें
बस इसी कोशिश में काँटो से खाने लगे
प्रणाम का परिणाम याद कहाँ
अब गुड डे और गुड नाइट ही सब बोल रहे
सुबह की सुनहरी किरणों को देखे वर्षों बीत जाते हैं
मध्य रात्रि तक जाग जाग कर निशाचर बन गये
बाबा ने पूछा ,बेटे ये कैसा रोजगार है
कुछ नहीं बाबा मेरा अन्नदाता सात समंदर पार है ।
रोजी रोटी की तलाश में परदेशी हो गये
अपनी ही भाषा छोड़कर विलायती बाबू बन गये ।
चाहे कोई भी हो देश ,याद हर पल रहता स्वदेश
यह एक क्रांति है या ग्लोबल वार्मिंग की तरह
विश्व बंधुत्व समझने की कोशिश कर
प्रवाह में बस बहते ही जा रहे हैं ।
एक माँ राह तकते इस दुनियाँ से
चली जाएगी, अपने ही घर आँगन में
अपने ही बच्चों के संग कब वो दिल बहलायेगी ।।
— आरती राय