हम न भूलेंगे, हम हैं हिन्दुस्तानी…
सपनों में आता है अक्सर वो छोटा-प्यारा गाँव हमें
जिसके बारे में दादी से सुनते थे अब तक है याद हमें
कब से हमने न देखा है पर फिर भी कितनी चाह हमें
आख़िर कैसे भूलेगी उन बिछड़े रिश्तों की याद हमें
हम न भूलेंगे, हम न भूलेंगे, हम हैं हिन्दुस्तानी…..
सुनते थे बारिश की बूँदें सोंधी मिट्टी पर सजती थीं
सुनते थे बेले की कलियाँ बग़िया-बग़िया में खिलती थीं
सुनते थे नीम के पेड़ों पर घर-घर में झूले पड़ते थे
सुनते थे बच्चे अम्मा से लोरी सुनकर ही सोते थे
हम न भूलेंगे, हम न भूलेंगे, हम हैं हिन्दुस्तानी…..
सुनते थे नदिया का पानी प्यासों की प्यास बुझाता था
सुनते थे वो नीला अम्बर बेघर की छत बन जाता था
सुनते थे सोने की धरती भूखों की भूख मिटाती थी
ख़ुशबू उस रात की रानी की मीलों-मीलों बस जाती थी
हम न भूलेंगे, हम न भूलेंगे, हम हैं हिन्दुस्तानी…..
सुनते थे मस्जिद की आज़ॅा उस रब की याद दिलाती थी
सुनते थे मंदिर की जय-जय भगवन को शीश झुकाती थी
सुनते थे गिरजा के घंटे पैग़ाम अमन का लाते थे
सुनते थे ईद-दिवाली में सब सबको गले लगते थे
हम न भूलेंगे, हम न भूलेंगे, हम हैं हिन्दुस्तानी…..
शायद वो बग़िया की कोयल कुछ कू कू करके गाती हो
शायद सरसों के खेतों में फिर रंग लहर लस जाती हो
शायद वो रात दिवाली की सारे जग को चमकाती हो
शायद वो ईद सिवइयों की मीठा-सा मुँह कर जाती हो
हम न भूलेंगे, हम न भूलेंगे, हम हैं हिन्दुस्तानी…..
— अब्बास रज़ा अलवी (ऑस्ट्रेलिया)
आप सबको एक राज़ की बात बताते हैं. आप सबको विदित ही है कि हम एक-एक शब्द की वर्तनी को भलीभांति जांचकर ही ब्लॉग प्रकाशित करते हैं. हम भाई अब्बास रज़ा अलवी की कविता ‘हम न भूलेंगे, हम हैं हिन्दुस्तानी…..’ के एक शब्द ‘आज़ॅा’ की वर्तनी जांच रहे थे, तो हमें
”सोच और संस्कारों की सांझी धरोहर
लेखनी- सितंबर 2011”
अंक के दर्शन हुए, जिसमें अब्बास रज़ा अलवी जी की यही कविता, जिसे हमने अपने सदाबहार काव्यालय के लिए चयनित किया, प्रकाशित हुई है. आप लोगों को यह जानकर अत्यंत हर्ष होगा कि इस अंक में अब्बास रज़ा अलवी जी को ‘माह के कवि’ की उपाधि से विभूषित किया गया है. अब्बास रज़ा अलवी जी को हमारी तरफ से बहुत-बहुत बधाइयां व शुभकामनाएं.