ग़ज़ल
यूं चारों सिम्त नफरत हो गई है,
मुहब्बत की ज़रूरत हो गई है।
कभी जो दोस्त थे उनसे मुझे अब,
न जाने क्यूं अदावत हो गई है।
मुझे मां- बाप हिस्से में मिलें हैं,
मेरी असली वसीयत हो गई है।
पलटकर देखना और मुस्कुराना,
यूं लगता है के चाहत हो गई है।
किसी भी दाम अब मिलती नहीं है,
बड़ी महंगी शराफ़त हो गई है।
दुआ में ‘जय’ को रखना याद यारों,
मैं चलता हूं इज़ाजत हो गई है।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’