इस वर्ष मेरे पूज्य पिता श्री लक्ष्मी चरण जी की जन्म शताब्दी है। पापाजी अत्यंत मेधावी व्यक्ति थे। अपने स्वभाव में वह अतिशय उदार एवं सकारात्मक सोंच रखते थे। उनके निकट जो भी कभी आया था उनको वर्षों के बाद भी याद करता है। इस अवसर पर मैं उनके जीवन से जुड़े कुछ तथ्य उल्लिखित कर रही हूँ।
पिता कोई भी हो ,बहुत महत्त्व रखता है। फिर हमारे पापा जी तो लाखों में एक थे। पापा जी का जन्म बनारस में ३ दिसंबर को सं १९१९ में हुआ। उनके बाबू जी की उम्र उस समय १९ वर्ष और माँ की आयु १४ वर्ष की थी। प्राचीन प्रथा के अनुसार माता ज्ञानवती अपने मायके ,बनारस चली गईं। बनारस में उनके पिता ,श्री दुर्गा प्रशाद खत्री ,अपने समय के रईस थे। उनकी पत्नी श्रीमती नारायणी देवी बेहद चतुर व सुन्दर थीं।
माँ की आयु कम होने के कारण प्रसव समय से पूर्व हो गया। सतमासा बालक ,कुल दो किलो वज़न , कमजोर माँ। सर्दी का मौसम। बालक ने आँखें नहीं खोलीं। वैद्यराज बुलाये गए। उन्होंने बालक के बचाव के लिए उसको रुई की तहों में केसर बिछा कर लपेट दिया। पंडितों को बुलाया गया। पूरे चालीस दिन तक दीर्घायु की कामना से समवेत पाठ आदि निरंतर चलता रहा। कहा जाता है कि चौथे दिन नवजात शिशु ने आँखें खोलीं। पंडितों के आदेश पर ७ तारीख दिसंबर जन्म तिथि घोषित की गयी।
अब ज्योतिषियों की बारी थी। जन्म कुंडली बनाई गयी। भविष्य का विचार हुआ। कुंडली में स्पष्ट हुआ कि बालक को सदा पाचन की समस्या रहेगी। नींबू पाचन में गुणकारी होता है अतः नींबू का दान बताया। पापाजी के नाना श्री ने अगले ही दिन आसपास की सारी ज़मीन उसके मालिक ,बसन्तू खटिक से खरीद ली। खटिक उसमे सब्जी लगाता था और अनेक पेड़ नींबू के भी लगे थे। नाना जी ने ज़मीन की मिलकियत तो खरीद ली थी मगर खटिक को वहीँ उसी जगह बसा रहने दिया। ( मेरी होश में भी वह परिवार वहीँ रहता था। बसंतु की बहू हमारे घर रोज़ सब्जी बेचने आती थी )
नानी जी ने चालीस दिन पूरे होने पर बगीचे के सारे नींबू तुड़वाये और घर की स्त्रियों ,महराजिनों आदि ने मिलकर नींबू का अचार डाला। बालक के स्वास्थ्य की कामना करते हुए यह अचार बड़े बड़े अमृतवानों में भरकर बिरादरी के सभी परिवारों को भेजा गया चाहे वह जिस शहर में रहते हों। पापा जी की मामी बतलाती थीं कि अचार इलाहबाद ,कानपुर ,पटना ,लखनऊ और दिल्ली तक गया। बचपन में जब हमें पेट का दर्द ,वात या कब्ज आदि हो जाता था तो मामी जी पुराना नींबू का अचार खाने को देती थीं जो अन्न वाली कोठरी में आदमक़द मर्तबान में रखा होता था।
तब तक वह काला चूर्ण जैसा हो गया था मगर बहुत स्वादिष्ट था। मेरे बेटे के जन्म के बाद भी यह घर में था और थोड़ा सा मैं यहां लंदन भी लाई थी।
पापाजी के जन्म की ख़ुशी में नाना जी ने कई दिन तक नाच गाना करवाया। नानी जी ने भर भर झोली इनाम बांटे।
दूसरी भविष्यवाणी यह की गयी कि बालक खूब नाम कमायेगा ,और इसके हाथों अनेकों का भला होगा। तीसरी बात पंडितों ने यह कही कि इसको वाहन सुख बहुत मिलेगा ,और इसके दरवाज़े पर हाथी झूलेंगे। कालांतर में पापा जी रोडवेज के उच्चाधिकारी बने। यह बात और है कि वाहन हाथी घोड़े न रहकर मोटर गाड़ियां हो गईं। अनेकों विदेशी कार उनको चढ़ने को मिलीं।
पापा जी का नामकरण किया गया। पैतृक परिवार लखनऊ में रहता था। उनके दादा अंग्रेजी सरकार के मित्र थे। पेशे से साहूकार थे अतः अंग्रेज अक्सर उनसे धन उधार लेते रहते थे। अपनी सेवाओं के लिए उनको राय साहब की पदवी दी गयी थी। हमारा परिवार किसी अज्ञात युग में बाह्लीक से आया रहा होगा अतः हमारा सरनेम बहल है। खत्रियों की यह प्रजाति हिंगलाज भवानी की भक्त थी जिनके विषय में यह प्रसिद्द है कि वह अपने नाम के आगे ‘ चरण ‘ लगाते थे। और नाम देवी-देवताओं के नाम पर रखते थे। ( यह तथ्य विकिपेडिया में उल्लिखित है हिंगलाज मंदिर के विवरण में ,जो अब पाकिस्तान के मकराना में है। ) इसी प्रथा के अनुसार पापा जी का नाम लक्ष्मी चरण रखा गया। बुलाने का नाम लच्छू। अतः वह लच्छू बाबू के नाम से ही अधिक जाने जाते थे।
बचपन में बहुत अधिक शरारती थे। माता ज्ञानवती बहुत बार गर्भवती हुईं। पर कच्ची उम्र थी अतः उनका समय बनारस में अधिक कटता था अपनी माँ की देख रेख में। पापाजी नाना नानी के दुलारे थे। बहुत सुन्दर रंग रूप भी पाया था। नाना जी आर्किटेक्ट थे और बेहद सृजनात्मक। कला का कोई पक्ष उनसे अछूता नहीं था। श्री शिव प्रशाद गुप्त उनके परम मित्र थे। शिव प्रशाद जी ने एक भारत माता के मंदिर की योजना उनके सम्मुख रखी तो वह सहर्ष उसे पूरा करने के लिए राजी हो गए। लक्सा गार्डन्स में अपने आवास के बगीचे में भारत माता का विग्रह तैयार किया गया। नाना जी ने स्वयं भारत के नक़्शे को चित्रों में उकेरा और मूर्तिकारों ने उसको संगमरमर में उकेरा। यह महान कार्य कई वर्षों में सम्पूर्ण हुआ।
कहा जाता है कि जब पापाजी केवल सात या आठ वर्ष के थे तब यह त्रिकोणीय विग्रह बन रहा था। उस घर में बच्चों की एक सेना थी। सब एक दो वर्ष की छोट -बड़ाई के करीब आधे दर्जन बच्चे थे जो सदा संग डोलते थे। इनके मास्टर -माइंड हमारे पापा जी थे। एक दोपहर को जब सब खस के परदों वाली ठंडी बैठक में सो रहे थे ,पापाजी चुपचाप खिसक लिए। वहां पहुंचे जहां काम चल रहा था। कारीगर आराम करने चले गए थे। टिटार धूप में बालक ने सुनहरा मौका जान पत्थरों को उठाकर इधर उधर कर दिया। तभी किसी की आहट सुनी तो भाग कर कमरे में आ गए और सो गए। माली ने देखा था अतः वह पीछा करता हुआ आ गया। उसकी शिकायत पर किसी ने भी विश्वास नहीं किया ,मगर नाना जी ने कहा ठहरो देखे लेते हैं। वह बच्चों के पास एक एक करके गए और उनकी कलाई पकड़कर नब्ज़ टटोली। स्पष्ट था कि पापा जी की धड़कन अधिक तेज चल रही थी। पकड़े गए। नाना जी से सबकी फूंक सरकती थी। चोरी तो पकड़ ली मगर उसे वैसे ही सोया रहने दिया। शाम को चार बजे कारीगरों ने रौला मचाया। उस दिन की सारी दिहाड़ी का काम खराब हो गया था। शाम को नानाजी ने पास बुलाया और गंभीर स्वर में हुक्म दिया अब अकेले चलो मेरे संग और देखो तुमने क्या किया। गए। सर ऊपर नहीं उठा रहे थे। पिटाई या कान खिंचाई का डर था। पर नानाजी ने कहा तुम्हारी सज़ा ये है कि जितने पत्थर तुमने बिगाड़े हैं उनको वापिस उनकी सही जगह फिट करो। पापाजी ने यही किया। दस पंद्रह मिनट में सब टुकड़े यथास्थान लगा दिए। कारीगर हैरान देखते रह गए। सब लग जाने पर बच्चे को गोदी में उठा लिया और खूब शाबासी दी। मगर नाना जी ने समझाकर नुक्सान के बारे में बताया। अतः अगली बार केवल अपनी फ़ौज के संग देखने जाते रहे पर छुआ कुछ नहीं।
यह मंदिर सं १९२६ में पूरा हुआ। परन्तु इसको रखने का भवन तैयार नहीं था। अतः सं १९३० तक यह बगीचे में ही रखा रहा। १९३० में जब सिगरा पर भवन बन गया तब इसकी स्थापना हुई और पूज्य महात्मा गांधी के कर कमलों से इसका उदघाटन हुआ। मंदिर आज भी वाराणसी का प्रमुख दर्शनीय स्थल है। इसको वर्ल्ड हेरिटेज ने अपने संरक्षण में ले लिया है। हालांकि यह एक खेद का विषय है कि आदरणीय शिव प्रशाद जी के द्वारा दान की गयी ज़मीन का बहुत सा हिस्सा उनके वंशजों ने बेच दिया है और अनुदान के अभाव में इसकी व्यवस्था क्षीर्ण हो गयी है।
यह एक अनूठी निशानी है उस काल के देश प्रेम की जिसकी जड़ों में हिंदी में दी गयी सांस्कृतिक शिक्षा थी। मंदिर में श्री दुर्गा प्रशाद जी के वंशजों ने उनका एक मात्र चित्र रखवा दिया है जो स्वयं उन्होंने आईने के सामने बैठ कर बनाया था। यह मंदिर खगोल शास्त्र का विद्यालय भी है और अनेक प्राचीन नक्शों और और आकाशीय चित्रों का संग्रहालय है।
— कादम्बरी मेहरा ,लंदन