ग़ज़ल
माना पहले से ताल्लुकात नहीं
बुरे इतने भी पर हालात नहीं
ख्वाब में अब भी रोज़ आते हैं
जिनसे बरसों से मुलाकात नहीं
हिज्र जैसी सज़ा नहीं कोई
वस्ल जैसी कोई सौगात नही
तुम्हें चाहा है, तुम्हें चाहूँगा
तुम न चाहो तो कोई बात नहीं
ज़िंदा रहती हैं ता-कयामत ये
लोग मरते हैं, ख्वाहिशात नहीं
— भरत मल्होत्रा