रात भर…
जलता रहा अलाव..
और खुलती रही बोतलों पर बोतलें…
और वो हँस रहे थे ..
बेहूदा और फूहड़ हँसी…..
अजीब अट्टहास के साथ…ही
वो मशगूल थे ….
खाने मॆं चिकन ,मटन और….और
जाने क्या-क्या अनाप-शनाप और
ले रहे थे चटकारे…..
यहीं तक होता तो ठीक था…..
हालाँकि अखर रहा था , ये सब मुझे…..
क्योंकि मैं ठहरा….
गाँव मॆं छाछ और चटनी के साथ
नमक लगी मिस्सी रोटी खाने वाला….
वो धरती पर रेंगने वाले विषैले सर्प के
जैसे….
रेंग रही थी उनकी उँगलियाँ…
उनके जिस्म पर…खुलेआम….
कुछ को इसी मॆं आ रहा ज़िंदगी का मजा मगर
कुछ अपने आप मॆं सिहर कर सिमट जाने की कर रही थी…नाकाम कोशिश….
रक्षक ही भक्षक जो बन कर रह गये थे उनके ।
छी…क्या यही होता है हाई सोसायटी का प्रमोशन
के बाद का जश्न….तो
नहीँ…चाहिये मुझे ऐसा प्रमोशन….
घिन आ रहे थी जब..
वो रिवाज़ के नाम पर
बदल रहे थे …
पत्नी अपनी अपनी और मैं
सुबह की ट्रेन से जा रहा था गाँव की ओर अपने ॥
— सविता वर्मा “ग़ज़ल”