ललित लेख – मैं जाड़ा हूँ
सबका अपना -अपना मौसम होता है। जिसमें सब अपने मन की करते हैं। जब मौसम की जवानी आती है। सब क़ायनात झुक जाती है।
मैं जाड़ा कहलाता हूँ । सबकी तीन अवस्थाओं की तरह मेरी भी तीन अवस्थाएँ होती हैं। बचपन ,यौवन और वृद्धावस्था। शरद ही मेरा बचपन है।बचपन किसे अच्छा नहीं लगता, चाहे वह किसी का भी क्यों न हो। शांति , सरलता , स्वच्छन्दता, सौहार्द्र और सुगमता। मुझे भी अपना बचपन अर्थात शरद बहुत सुहावना लगता है। आपको भी लगता होगा। शरद जाड़े का श्रीगणेश ही तो है।
जब मैं अपने यौवन पर आता हूँ , तो अपनी ताकत के गुमान में न जाने कितनों को सिधार देता हूँ। लोग कहने लगते हैं कि ऐसा जाड़ा पहले कभी नहीं पड़ा। जब कि ऐसा नहीं है। हर साल मेरे तेवर कुछ अलग ही होते हैं। कभी -कभी तो वर्षा रानी भी मेरा सहयोग करती है औऱ मेरे यौवन में चार चाँद लगा देती है। उसमें भी ठंडी -ठंडी ओस , तुषार या पाला , हिमपात सभी मेरा साथ देते हैं। ये ही तो मेरे यौवन को निखारते हैं। आसमान में यदि बादल छा जाएँ और ठंडी -ठंडी हवा बहे तो फिर मेरी जवानी रोके नहीं रुक पाती। वैसे किसी के जीने का असली मक़सद तो उसकी जवानी में ही पता लग पाता है।यही जीवन की भावी रूपरेखा तैयार करता है।
पौष औऱ माघ के दो महीने ही तो मेरे यौवन के शिखर पर जाने के होते हैं।जिसे आम भाषा में हेमन्त की संज्ञा दी जाती है। पर जो जितना चढ़ता है , उतना ही नीचे उसे गिरना भी पड़ता है। भगवान भास्कर सूरज भी मेरे यौवन की धुंध में ,कोहरे के फंद में और बादलों के झुंड में रजाई में मुँह ढंककर बैठ जाते हैं। वे भी सुबह ऊँचे आसमान पर चढ़कर संध्या को नीचे चले जाते हैं। यही प्रकृति का नियम है। जो चढ़ता है , वह गिरता है। मुझे भी गिरना पड़ता है। यह शिशिर ही मेरा बुढापा है। ‘चिल्ला जाड़े दिन चालीस’ , की कहावत कुछ इसी तरह बनी होगी। माघ मास के बाद मैं जाड़ा भी बुढ़ाने लगता हूँ।
चैत्र वैशाख में ऋतुओं के राजा वसंत का आगमन होता है। मदनोत्सव होली भी इसी समय अपना रंग, उमंग और भंग उँडेलता है। मेरा बुढ़ापा और वसन्त का यौवन एक नया समा बाँध देता है। मेरा भी अपना ही मौसम है।भला बताइये कौन है जो ‘मो- सम’ है? मेरे समान है? है कोई ?
कोई भी नहीं। अच्छे -अच्छे को नानी याद आ जाती है।
मैं जाड़ा हूँ। सीधा नहीं, आड़ा हूँ। उन्तालीस का पहाड़ा हूँ। अभी तो घर -घर , दर -दर , गली -गली , खेत , सड़क , वन -उपवन , नदी -पर्वत, सभी जगह ठाड़ा हूँ। मैं जाड़ा हूँ।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’