विवश
”बंजर भूमि में अब खिलेंगे फूल”. बंजर भूमि में संवेदनाएं शेष थीं, इसलिए वह फूलों की तरह हर्षित थी.
”बंजर भूमि पर उगने वाले कैक्टस में हैं कई प्रकार के औषधीय गुण”. बंजर भूमि अपने कैक्टस के औषधीय गुणों पर गर्वित थी.
”बंजर होता भारत: 30 प्रतिशत जमीन पर नहीं उग रहा अनाज का एक भी दाना.” बंजर भूमि अन्न-धन से मालामाल करने की चाह रखते हुए भी अपनी अशक्तता के कारण चिंतित थी.
पत्थरबाजी, आगजनी, सरकारी संपत्ति हो हानि पहुंचाकर किसी-न-किसी बहाने वैर-विरोध, वंचना-व्यंजना को प्रोत्साहन देने वाले बंजर समाज के विकृत चेहरे पर चिंता का तनिक भी आभास नहीं था.
”ठहरो” ठूंठ पर उगते हुए सूरज जैसी लालिमा लिए कोमल-किसलय समान कोंपल ने इसी मोड़ पर कथा को समाप्त करने वाले कथाकार की लेखनी को ललकारा- ”आशा अभी धूमिल नहीं हुई है.” बंजर समाज सोचने को विवश हो गया था.
बंजर समाज के मन में कभी तो दया-प्रेम का संचार होगा! इसी उम्मीद पर दुनिया टिकी हुई है.