दोहे “जिजीविषा”
रहती है आकांक्षा, जब तक घट में प्राण।
जिजीविषा के मर्म को, कहते वेद-पुराण।।
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जीने की इच्छा सदा, रखता मन में जीव।
करता है जो कर्म को, वो होता सुग्रीव।।
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आशायें जीवित रहे, जब तक रहे शरीर।
जिजीविषा के साथ में, सब करते तदवीर।।
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धन-दौलत की चाह में, पागल हैं सब लोग।
जीवन के हर मोड़ पर, जिजीविषा का योग।।
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जिजीविषा का है नहीं, जग में आदि न अन्त।
जोत जगा कर ज्ञान की, बन जाओ श्रीमन्त।।
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मानस में खिलते रहें, जिजिविषा के फूल।
लेकर प्रीत कुदाल को, मिटा दीजिए शूल।।
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बड़ा अनोखा है यहाँ, जिजीविषा का मन्त्र।
तन्त्र चलाने के लिए, जिजीविषा है यन्त्र।।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)