मछली
मैं मछली कहलाती हूँ।
जल में ही रह पाती हूँ।।
जल ही तो जीवन है मेरा।
निशिदिन करती रहती फेरा।।
अपना मन मैं बहलाती हूँ।
मैं मछली कहलाती हूँ।।
गर्मी हो या वर्षा, जाड़ा।
मुझे न मौसम होता आड़ा।।
सब कुछ मैं सह जाती हूँ।
मैं मछली कहलाती हूँ।।
अंडे से मैं बाहर आती।
तैर – तैर जल पर उतराती।।
सागर सरिता भर जाती हूँ।
मैं मछली कहलाती हूँ।।
जल के जीव,घास भी खाती।
तेजी से मैं वंश बढ़ाती।।
फुर्ती में श्रेष्ठ कहाती हूँ।
मैं मछली कहलाती हूँ।।
रंग – बिरंगी बड़की छोटी।
व्हेल सरीखी भारी मोटी।।
दो सौ टन की मैं हो जाती हूँ।
मैं मछली कहलाती हूँ।।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’