संस्कृति संरक्षण और शिक्षा
यह कल्पना करना ही भयावह लगता है कि अगर शिक्षा न होती तो क्या होता? अगर शिक्षा न होती तो प्राचीनतम् विचारों का क्रमबद्ध संकलन होना सम्भव नहीं होता। गुरुकुल या विद्यापीठ अथवा आज के अत्याधुनिक विद्यालय नहीं होते। समाजीकरण की सतत् प्रक्रिया सुचारु नहीं हो पाती। हमारी अनमोल धरोहर जिसे हम आज भी गर्व से सबसे समृद्ध संस्कृति कहते हैं, न विकसित होती और न ही स्थापित। आज भी हम संस्कृति विहीन होकर विकास के प्रथम चरण में पशुवत विचरण कर रहे होते।
जीवों के विकास का सतत और दीर्घकालिक क्रम चलता रहा जिससे मानव की उत्पत्ति हुई। लाखों कोटि जीवों में मानव ही एक ऐसा प्राणी है जो शरीर, मस्तिष्क और जीवन पद्धति के आधार पर न सिर्फ सबसे भिन्न बल्कि विकसित भी माना जाता है। नदियों के किनारे विकसित हुई सभ्यताओं ने मनुष्य के समक्ष बहुतेरी चुनौतियाँ प्रस्तुत की थीं जिनको स्वीकारना और नतीजे तक पहुँचाना मनुष्य की प्राथमिकता थी जिसे निभाया गया। अत: मनुष्यों ने क्रमश: परिवार, समुदाय एवं समाज का निर्माण किया तथा साथ ही मानवोचित विशेषताओं को विकसित करना महत्वपूर्ण माना अर्थात् मनुष्यों ने सहृदयी भावनाओं को विकसित करके आन्तरिक गुणों में वृद्धि किया। इसे ही अभौतिक संस्कृति या दूसरे शब्दों में संस्कृति के रूप में देखा जाता है। इसका दूसरा पक्ष यह रहा कि बाहरी सुख-सुविधा के लिए यातायात के साधन, मकान और न जाने कितने सामानों का जखीरा एकत्रित किया गया जिसे भौतिक संस्कृति के रूप में जाना जाता है जो सभ्यता का बहुत बड़ा हिस्सा है।
ख्यातिलब्ध समाजशास्त्री ऑगबर्न और नीमकॉफ कहते हैं कि भौतिक संस्कृति की अपेक्षा अभौतिक संस्कृति में बदलाव बहुत धीमी गति से होता है इसी कारणवश भौतिक संस्कृति की अपेक्षा अभौतिक संस्कृति पिछड़ जाती है जिसे सांस्कृतिक पिछड़ापन (कल्चरल लैग) कहते हैं। यह पूर्णतया सच है कि संस्कृति दीर्घकालिक होती है जिसमें कोई भी परिवर्तन शीघ्र नहीं होता। रहन – सहन, आचार-विचार, परम्परायें, मान्यतायें, प्रथायें एवं रूढ़ियाँ भी हमारी संस्कृति का अंग हैं जो समय के सापेक्ष बहुत धीमी गति से चलती हैं क्योंकि इनकी जड़ें हमारे पीढ़ीगत संस्कार में धसी होती हैं अर्थात् इसमें स्थायित्व होता है। दर्जनों विदेशी आक्रान्ताओं ने हमारी संस्कृति को मिटाने के लिए आक्रमण किए, अत्याचार किए, बलात्कार व अपहरण किए, जजिया थोपे और प्रलोभन भी दिए इसके बावजूद भी हमारी संस्कृति अमिट रही, इसका सबसे बड़ा कारण है परिवर्तन को नकारना या अत्यन्त धीमा होना। इसी विशेषता के कारण अधिकतर बाह्य प्रयास प्रभावहीन हो जाता है।
जब हम शिक्षा की बात करते हैं तो पावन गुरुकुलों की बुनियाद स्वयमेव याद आ जाती है। महान गुरुजन गुरुकुलों की स्थापना करके योग्य शिष्यों को तैयार करते रहे। उनका उद्देश्य था कि आगत पीढ़ी में विद्या व ज्ञान का विकास हो, हस्तान्तरण हो और संरक्षण भी हो। इसके लिए मौलिक जरूरतों और स्वयं की सुविधाओं को नकारते हुए कठोर श्रम करते थे। संसाधन के संकट से गुजरना पड़ता था उन्हें। प्रयोग के तौर पर खुद अनुसंधान करते और वनों में उपलब्ध वस्तुओं से शिक्षा को सुग्राह्य एवं सरल बनाते। काफी हद तक उद्देश्य सफल भी रहा। भारत ही नहीं बल्कि विश्व में भारत की संस्कृति और रोम की सभ्यता का स्थान उच्च था। महत्वाकांक्षाओं में द्रुतगामी परिवर्तन ने देश की परिस्थितियों में काफी उतार – चढ़ाव किए। अलग-अलग मिजाज के बादशाह हुए। कुछ ने साहित्य, संस्कृति व कला को समृद्ध करने की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किए। भारतीय इतिहास का गुप्तकाल आज भी स्वप्न सरीखा लगता है। कुछ ऐसे भी बादशाह हुए जिनके कुकृत्य के घाव आज भी समाज में रिसते हैं। युगों से चली आ रही गुरुकुल परम्परा को रोका गया…….नष्ट किया गया। गुरुओं और शिष्यों को एक साथ नास्तिनाबूद किया गया। अज्ञानता के अंधकार में जीने वाले असभ्य और विकृत मानसिकता के शासकों ने ज्ञान की आधारशिला तक्षशिला, नालन्दा और विक्रमशिला जैसे शिवविद्यालयों को जलाकर खाक कर दिया। क्यों? इसलिए कि इन शिक्षालयों द्वारा संस्कृति को लिपिबद्ध करके पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित किया जाता था…..संरक्षित किया जाता था जो असभ्य आक्रान्ताओं को हजम नहीं हुआ। अब जबकि लोकतन्त्र में राजकीय बल प्रयोग का जमाना नहीं रहा तो लोभ देकर सांस्कृतिक विकृति करने का प्रयास हो रहा है।
शिक्षा क्या है? अगर हम गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा हमारे ज्ञान, भाव एवं कार्यकुशलता में वांछित परिवर्तन होता है। शिक्षा प्राप्ति के उपरान्त हम पहले से ज्यादा ज्ञानवान हो जाते हैं, हमारी भावनायें उस विषय वस्तु के प्रति पहले से ज्यादा निखरकर उचित दिशा दिखलाती हैं और उस कार्य को करते समय हमारी दक्षता स्पष्ट: परिलक्षित होती है। जब इतना परिवर्तन दिखे तब हम शिक्षित कहलाने का हक रख सकते हैं। वर्तमान में शिक्षा मूलरूप से तीन प्रकार की है। प्रथम औपचारिक शिक्षा, द्वितीय अनौपचारिक शिक्षा और तृतीय आनुषंगिक शिक्षा। औपचारिक शिक्षा वह शिक्षा है जो विद्यालयों में प्राप्त होती है। इसमें समय, स्थान, पाठ्यक्रम और शिक्षक तयशुदा होते हैं। यह सर्वाधिक प्रचलित और उपाधि प्रदायी शिक्षा है। अनौपचारिक शिक्षा वह शिक्षा होती है जिसमें समय और स्थान का बंधन नहीं होता या बहुत शिथिल होता है। प्रौढ़ शिक्षा एवं पत्राचार शिक्षा इसी कोटि की शिक्षा है। इसका उद्देश्य साक्षरता को बढ़ावा देना एवं किसी भी वजह से शिक्षा से वंचित लोगों को पुन: अवसर प्रदान करना है। औपचारिक शिक्षा से ड्रॉप ऑउट बच्चों को फिर से शिक्षा से जोड़ना है। इसमें भी शैक्षिक उपाधियाँ मिलती हैं। आनुषंगिक शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा है जिसमें कागजी उपाधि का कोई स्थान नहीं है। यह अनुभव जन्य शिक्षा है जो लोगों के सम्पर्क में एवं स्वयं के प्रयास से अनुभव द्वारा प्राप्त होती है। सकल साहित्य, प्रवचन, सत्संग, वैविध्य कला एवं उस्तादी परम्परा, प्रथा, संस्कार व संस्कृति इसी शिक्षा की पुष्टि करते हैं।
वैदिक काल में जब हमारे देश में वेद आधारित सनातन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ तो इसके साथ ही हमारी संस्कृति इससे ओत प्रोत हुई। हमारे भीतर दया, क्षमा, सुविचार, संस्कार, सुकर्म, सत्संग और भक्ति आदि की तरह अनेकों भावनायें विकसित हुईं। इसके तद्नन्तर उपनिषद्, पुराण, रामायण, गीता और रामचरित मानस जैसे बहुतेरे ब्राह्मण ग्रंथ रचे गए। इन समस्त पावन ग्रंथों ने हमारी संस्कृति में प्रमुख दो बातों को शाश्वत रखा जो सभी धर्मों का मूल है। एक यथासम्भव परोपकार करना और दूसरा किसी को कष्ट देने से बचना। इनपर ही पुण्य और पाप की अवधारणा रखी गई जो हजारों वर्ष बाद भी आज तक जस की तस है।
निष्कर्ष स्वरूप हम कह सकते हैं कि संस्कृति के बीज ने शिक्षा को उपजाया। शिक्षा ने संस्कृति को विकसित किया, प्रसारित किया और हजारों वर्ष तक संरक्षित करके हस्तान्तरित किया। आज की हमारी संस्कृति हमारी शिक्षा की देन है जिसके आलोक में अतीत-दर्शन करना सुलभ और सम्भव है। हमको चाहिए कि शिक्षा को सदैव सही दिशा दें और उचित परिष्करण करते रहें जिससे संस्कृति का संरक्षण कायम रह सके।
— डॉ. अवधेश कुमार ‘अवध’