गज़ल
पीने को जल कमी है, होठों को मल रहे है
हम रोज़ थोड़ा थोड़ा साँचों में ढल रहे हैं|
रहने को ज़मी कमी है, हाथों को मल रहे हैं
इक दूजे के दिलों से, फिर क्यों निकल रहे हैं|
क्या अदब सा दिखा है , लोगों में हुनर लिया सा
मंजिल खड़े निकट ही , वो रुख़ बदल रहे हैं|
देखेंगे अमन होगा, जब नवल राहें हो
कुछ वो बदल रहे हैं, कुछ हम बदल रहे हैं|
आलम न बद-गुमानी का पूछो सबसे “मैत्री”
साथी दिखे समूहों का और तनहा बदल रहे हैं|
— रेखा मोहन