प्रेम
एक दूसरे की भावनाओं को समझना दुनिया का सबसे दुष्कर कार्य है । प्रेम की मूल भावना प्रेम को बाहरी रूप में देखना ही नहीं अपितु प्रेम की गहराई में उतरना है । कुछ अनसुलझे सवालों को तलाशना भी प्रेम का ही रूप है । प्रेम को परिधि और शर्तों में बाँधना भी प्रेम का अपमान करना ही तो है ।क्या पानी को कोई रोक पाया है ?क्या लहरों को कोई बाँध पाया है ?क्या सूरज की किरणों का किसी व्यक्ति या स्थान विशेष से प्रेम है ?क्या हवा को कोई मोड़ पाया है जब प्रकृति स्वतंत्र निर्बाध रूप से अपना संचालन करती रहती है फिर इंसान किसी के बंधनों में कैसे खुली साँस ले सकता है ? प्रेम सिर्फ सुख में साथ रहने का नाम नहीं अपितु अपने साथी का हर पल सुख दुख दोनों में समान रहने का नाम है ।जब भावनाओं का ज्वार अपने चरम पर होता है तब वह सिर्फ उस व्यक्ति को ढूँढता है जिसके सामने वो खुद को बिना किसी रोक टोक के खुलकर व्यक्त कर सके ।प्रेम में न उम्र मायने रखती है न ही व्यक्ति की सुंदरता बल्कि जिससे प्रेम होता है वो व्यक्ति दुनिया का सबसे सुंदर व्यक्तित्व होता है ।प्रेम वो सम्मोहन है जो बाहरी व्यकित्व पर आश्रित नहीं बल्कि व्यक्ति की आंतरिक विशेषताओं की ओर सहज आकृष्ट हो जाता है ।
प्रेम में दुनिया को अपनी ओर खींचने की प्रबल शक्ति होती है ।जो कार्य आप लड़ाई से पूरा नहीं कर सकते वही प्रेम के दो मीठे बोल से आसानी से अपने ध्येय को प्राप्त कर लेता है ।आज लोगों के पास बड़े बड़े मोबाइल, टीवी ,अत्याधुनिक उपकरण सभी कुछ तो है लेकिन कमी है तो सिर्फ प्रेम की ,शांति की ,विश्वास की ।
प्रेम जैसा सुर नहीं ,
प्रेम जैसा संगीत कहाँ
हृदय जिसको ढूँढता
वो प्रेमी मनमीत कहाँ ।
समझ जाए मन की विकलता
बिन किसी उलाहना के
धन्य हो जाये जीवन
फिर गहन आकुलता कहाँ ।
प्रीत ही गहरी अगन
प्रीत ही है व्यवहारिकता
साँस में सहज घुल जाए
खो गयी वो व्याकुलता कहाँ ।
अश्रुओं का बाँध है
धड़कनों का जाम है
महका दे टूटे ह्रदय को
प्रेम की वो सहजता कहाँ ।
तुष्टिकरण भी प्रेम है
व्याकरण संसार का
खोल दे भाव की पोटली
रिश्तों की सुलभता कहाँ ।
— वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़