लघुकथा – “खरी बात”
“वह देखो शर्मा जी कितने खुश रहते हैं ।”
“कितने संतुष्ट रहते हैं ।”
” आनंद से कितने लबालब रहते हैं ।”
“पति-पत्नी में आपस में कितना अधिक प्रेम है ।”
“उनके बच्चे भी उनकी कितनी अधिक बात मानते हैं ।”
“बिलकुल सही है ।”
” हम दोनों उनसे कितने ऊंचे ओहदों पर हैं,हमारे पास पैसा भी है,पर शर्मा जी जैसा हमारा तो कुछ भी नहीं ।है न उपाध्याय जी ?”
“आपने बिलकुल ठीक कहा वर्मा जी ।”
“तो ,आख़िर ऐसा क्यों ?”
दोनों इसकी वज़ह ढूंढने में लगे थे,पर ढूंढ नहीं पा रहे थे ।
बहुत देर से अपने अफसरों की माथापच्ची देखकर भृत्य रामलाल बोला-” अगर आप लोग मुझे माफ करें तो मैं कुछ बोलूं ?”
“हां,ज़रूर,क्यों नहीं ?”
“दरअसल,शर्मा जी के जीवन में सादगी है,पवित्रता है । उनके पारिवारिक रिश्तों में ईमानदारी है । वे हर काम संस्कारों के साथ करते हैं , इसलिए ऐसा है ।”
भृत्य की खरी बात सुनकर दोनों अफसर बगलें झांकने लगे ।
– प्रो. शरद नारायण खरे