नफ़रत
लहू बनकर बहती है मोहब्बत जहाँ आज भी जिस्म में , जाने कैसे नफरत से यारी कर लेते हैं लोग ? तन्हाइयों से सहम कर टूट जाते हैं पत्ते भी पेड़ की शाख से , जाने कैसे अपनों को भुला देते हैं लोग ? हमको नहीं था इल्म दूर दूर तक जमाने की बदलती हवाओं का , जाने कैसे कैसे दस्तूर बना देते हैं लोग ? सजदे में बैठे थे खुदा की इबादत में मगरूर होकर ख्यालों में , जाने क्यों जय को ही विजय बना देते हैं लोग ? वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़